कलात्मक मृत्यु का इतिहास रचने वाला साधक
जैन धर्म के छोटे-से आम्नाय तेरापंथ धर्मसंघ के सुश्रावक श्री विष्णुभगवान जैन का इन दिनों अलखपुरा तहसील तोशाम जिला भिवानी (हरियाणा) में संथारा यानी समाधिमरण का आध्यात्मिक अनुष्ठान असंख्य लोगों के लिये कोतुहल का विषय बना हुआ है। दिनांक 9 नवम्बर, 2018 भैयादूज के प्रारंभ यह सर्वाधिक लम्बा संथारा आज 146 वें दिवस पर भी अनवरत जारी है। मृत्यु के इस महामहोत्सव के साक्षात्कार के लिये असंख्य श्रद्धालुजन देश के विभिन्न भागों से दर्शनार्थ पहुंच कर अमरत्व की इस अनूठी एवं विलक्षण यात्रा से लाभान्वित हो रहे हैं। यह संथारा इसलिये भी अनूठा एवं आश्चर्यकारी है क्योंकि एक कृषिजीवी जाट परिवार में जन्मे एवं सनातन धर्म के संस्कारों में पले एवं बाद में जैन बने श्री विष्णु भगवान आज के इस भौतिकवादी एवं सुविधावादी युग में सुख-सुविधा, मोहमाया के त्याग का इतिहास रच रहे हैं।
जैसाकि सर्वविदित है कि जैन धर्म में अनगिनत सदियों से संथारे की परम्परा चली आ रही है और वर्तमान में भी समाधिमरण की यह अनूठी परम्परा पूरी तरह से जीवित और जीवन्त बनी हुई है। जैन धर्म के नियमानुसार ली जाने वाले संथारा व संलेखना समाधि की गौरवमयी आध्यात्मिक परम्परा है, जिसे धुंधलाने के प्रयास होते रहे हैं और इसे कानूनी मसला भी बनाया जाता रहा है। लोगों में सहज जिज्ञासा है कि संथारा आखिर क्या है? जैन धर्म के मृत्यु महोत्सव एवं कलात्मक मृत्यु को समझना न केवल जैन धर्मावलम्बियों के लिये बल्कि आम जनता के लिये उपयोगी है। यह मृत्यु की अनूठी आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जिसके उज्ज्वल इतिहास एवं महत्व को समझते हुए भूदान आन्दोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे ने भी अपनाया था। संत विनोबा भावे ने कहा था कि गीता को छोड़कर और महावीर से बढ़कर इस संसार में कोई नहीं है। यह बात मैं गर्व से नहीं, बल्कि स्वाभिमान से कह सकता हूं। विनोबा भावे ने जैन संतों का भी अनुकरण किया है। उन्होंने जैन परम्परा में मृत्यु की कला को भी आत्मसात करते हुए संलेखना-संथारा को स्वीकार कर मृत्यु का वरण किया। संलेखना के दौरान वर्धा में गांधी आश्रम में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनसे कहा था कि देश को उनकी जरूरत है। उन्हें आहार नहीं छोड़ना चाहिए। तो संत विनोबा भावे ने कहा था कि मेरे और परमात्मा के बीच में अब किसी को नहीं आना है, क्योंकि अब मेरी यात्रा पूर्ण हो रही है। न केवल विनोबा भावे बल्कि अनेक जैनेत्तर लोगों ने भी समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करके संथारे को गौरवान्वित किया है। श्री विष्णु भगवान जैन ने अपनी मृत्यु को इसी प्रकार धन्य करते हुए अमरत्व की ओर गतिमान है।
आत्मविश्वासी, दृढ़निश्चयी, कर्मयोगी एवं सुश्रावक श्री विष्णु भगवान जैन ने 57 वर्ष की आयु में अपने जीवन ही नहीं, बल्कि अपनी मृत्यु को भी सार्थक करने के लिये संथारा की कामना की, उनकी उत्कृष्ट भावना को देखते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने इसकी स्वीकृति प्रदत्त की और उनकी शिष्या साध्वी यशोधराजी ने अलखपुरा गांव पधारकर उन्हें संथारा दिला दिया गया। श्री विष्णु भगवान जैन आचार्य महाप्रज्ञ से गुरुधारणा स्वीकार की और एक आदर्श श्रावक की जीवनचर्या को जीने लगे। उनका सम्पूर्ण जीवन भगवान महावीर के आदर्शों एवं तेरापंथ धर्मसंघ के संस्कारों पर गतिमान रहा है। जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, गुरु निष्ठा एवं संघ निष्ठा के उपक्रमों से एक नया इतिहास बनाया है। उन्होंने सारी सुख-सुविधाएं और भरे पूरे परिवार की मोहमाया को छोड़कर देहाध्यास से ऊपर उठकर सदा के लिए खाने को त्याग दिया। एक अजैनी होकर उन्होंने जो इतिहास रचा है वह सचमुच विरल है, अनूठा है, आश्चर्यकारी है, अद्भुत है। चैधरीजी की दृढ़ता एवं संकल्पनिष्ठा देखकर लोग दांतों तले अंगुली दबा रहे हैं और यह स्वर चारों ओर गुंजायमान है कि वाह! पीढ़ियों के जैनी भी इनके सामने क्या मायने रखते हैं। विष्णु भगवान जी ने मृत्यु के मोर्चे पर खड़े होकर श्रावक के सर्वोच्च मनोरथ संथारे को अपनाकर मृत्यु को चुनौती दी है। पूर्ण स्वस्थता और संपन्नता की स्थिति में इस तरह भौतिकवादी युग में चिंतनपूर्वक एवं स्वेच्छा से संथारा स्वीकार करना एक वीर महापुरुष का ही कर्म हो सकता है। इस मायने में विष्णु भगवान जी ने जो विलक्षण इतिहास रचा है, मृत्यु को जो महोत्सव का रूप दिया है वह अनुकरणीय है। उन्होंने अपने इस विलक्षण निर्णय से न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत में सुनाम अर्जित किया है। ऐसे महान् साधक, तपस्वी एवं कर्मयौद्धा श्रावक का संथारा एक नया इतिहास निर्मित कर रहा है। श्रमण संस्कृति की अति प्राचीन और अहम धारा जैन धर्म की परम्परा में संलेखना और संथारा को सदैव बहुत उच्च साहसिक त्याग का प्रतीक माना गया है। जैन समाज में यह पुरानी प्रथा है कि जब किसी तपस्वी व्यक्ति को लगता है कि वह मृत्यु के द्वार पर खड़ा है तो वह स्वयं अन्न-जल त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को संथारा कहा जाता है। इसे जीवन की अंतिम साधना के रूप में स्थान प्रदान किया है। अंतिम समय की आहट सुन कर सब कुछ त्यागकर मृत्यु को भी सहर्ष गले लगाने के लिए तैयार हो जाना वास्तव में बड़ी हिम्मत का काम है। जैन परम्परा में इसे वीरों का कृत्य माना जाता है। यह आत्महत्या नहीं, आत्म समाधि की मिसाल है और समाधि को जैन धर्म ही नहीं, भारतीय संस्कृति में गहन मान्यता दी गई है। मरते समय कौन नहीं चाहेगा कि मेरे मुख से प्रभु-नाम निकले? गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में एक चैपाई लिखी है, ह्यकोटिकोटि मुनि जतन कराहिं। अन्त राम कहि आवत नाहिंह्ण बस इसी मंगल भावना का साकार रूप सल्लेखना अथवा संथारा है जिसमें अहिंसा अपनी पराकाष्ठा पर होती है और सारे व्रत अत्यन्त निर्मल हो जाते हैं। आज जबकि सर्वत्र यही देखने में आता है कि कोई भी मनुष्य मरना नहीं चाहता। ह्यसव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउे न मरिज्जिऊंह्ण जिजीविषा हर प्राणी की एक मौलिक मनोवृत्ति है। मौत का फंदा जब गले में पड़ता है तो अंतिम क्षण तक वह चाहता है कि कोई मुझे किसी भी कीमत पर बचा ले। मृत्यु को लेकर जो अज्ञान है। यदि उस अज्ञान के दुर्ग की प्राचीरों को जमींदोज कर दिया जाये तो कोई उलझन शेष नहीं रहेगी। अज्ञान भय को जन्म देता है और भय जिंदगी को नर्क बना देता है।
मनुष्य को जीवन में राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि विविध प्रकार के उत्सव मनाने का अवसर प्राप्त होता है। प्रत्येक उत्सव का अपनी-अपनी जगह महत्व है। उनके महत्व का कारण उनमें अनेक विशेषताएं हैं। किन्तु मृत्यु महोत्सव जीवन के अंत में एक बार ही मनाने का अवसर प्राप्त होता है। संसार में जीवों को जन्मजरा-मृत्यु से मुक्त कराने वाला उत्सव ही सर्वोत्कृष्ट उत्सव है। इसलिए जैनाचार्यों ने मृत्यु को महोत्सव कहा है। जैन धर्म के मृत्यु महोत्सव एवं कलात्मक मृत्यु को समझना न केवल जैन धर्मावलम्बियों के लिये बल्कि आम जनता के लिये उपयोगी है। यह समझना भूल है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का अन्न-जल जानबूझकर या जबरदस्ती बंद करा दिया जाता है। संथारा स्व-प्रेरणा से लिया गया निर्णय है। जैन धर्म-दर्शन-शास्त्रों के विद्वानों का मानना है कि आज के दौर की तरह वेंटिलेटर पर दुनिया से दूर रहकर और मुंह मोड़कर मौत का इंतजार करने से बेहतर है संथारा प्रथा। यहाँ धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को पूरे आदर और समझदारी के साथ जीने की कला को आत्मसात किया जाता है। श्री विष्णु भगवान जैन का संथारा निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का निमित्त बनेगा एवं उन्हें भी अमरत्व प्राप्त होगा, यही विश्वास है। ?
जैन धर्म-दर्शन-शास्त्रों के विद्वानों का मानना है कि आज के दौर की तरह वेंटिलेटर पर दुनिया से दूर रहकर और मुंह मोड़कर मौत का इंतजार करने से बेहतर है संथारा प्रथा। यहाँ धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को पूरे आदर और समझदारी के साथ जीने की कला को आत्मसात किया जाता है। श्री विष्णु भगवान जैन का संथारा निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का निमित्त बनेगा एवं उन्हें भी अमरत्व प्राप्त होगा, यही विश्वास है।
विनय शर्मा