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आज भी प्रासंगिक हैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार

गांधी विचारक, चिंतक, अर्थशास्त्री के साथ ही मानवता के प्रकाशस्त्म्भ, युगात्मा, युगदृष्टा और प्रेरणा स्रोत हैं। उनके विचार देश-काल में सीमित न होकर सीमाओं से परे है। आज उदारीकरण के प्रभाव से दुनिया के सभी देशों की अर्थव्यवस्था एक दूसरे से जुड़ी हुई है। इस तरह के माहौल में अपने देश के हितों की रक्षा गांधीवादी मूल्यों से ही सम्भव है। ग्लोबल विलेज और अधिकाधिक लाभ कमाने की संस्कृति में गांधी के अपरिग्रह का पालन उत्तम है।

साम्प्रदायिकता कट्टरता और आतंकवाद के दौर में गांधी का धार्मिक सदभाव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पर्यावरण के मुद्दे पर गांधी सजग नजर आते हैं, उनका मानना है कि अंधाधुंध शहरीकरण हमारे वातावरण को दूषित कर रहा है। वह कुशल और आत्मनिर्भर गांवों की स्थापना की बात करते हैं। वे स्वदेशी को प्राथमिकता देते थे, उनका मानना था कि स्वदेशी से हमारा देश आत्मनिर्भर बन सकता है। दुनिया में शांति और सद्भाव बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है की विभिन्न देशों की आर्थिक असमानता और असन्तु्लन को कम किया जाय। कई देशों में गरीबी, निरक्षरता, भुखमरी, कुपोषण और आर्थिक विषमता दिखाई देती है जो औपनिवेशिक शोषण का नतीजा है। इन देशों के हालातों में अगर सुधार नहीं किया गया तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक असन्तुलन पैदा होगा जो अशांति की वजह बन सकता है। आज के हिंसात्मक माहौल में न्याय, स्वतत्रता, समानता और भाईचारे की भावनाओं पर आधारित एक धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक राष्ट्र अपना अस्तित्व कायम रख सकता है? गांधीवादी मूल्यों का अनुसरण करने से देश की मुश्किलें कम हो सकती हैं।

गांधी पयार्वरण में आती गिरावट से बहुत व्यथित थे। उनका मानना था कि हमें पयार्वरण के प्रति जागरूक रहना चाहिए। उनका मानना था कि उद्योगों के विकास ने औद्योगिक सभ्यता पैदा की है जिसका एकमात्र विकल्प है ग्रामीण वातावरण। उनके अनुसार गांव बिना मशीनों के नहीं होंगे। वे गांव आधुनिक तकनीकि सम्पन्न होंगे। गांधी गांव और शहर के बीच एक संतुलन स्थापित करने की बात करते हैं। गांधी अहिंसा को प्राथमिकता देते थे। उनका मानना था  अहिंसक व्यक्ति कभी भी प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की नहीं सोचता। अहिंसक व्यक्ति प्रकृति से सदैव सामंजस्य स्थापित कर लेता है। वह कभी भी प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नहीं करता,साथ ही प्रकृति और परिवेश के साथ भावात्मक रिश्ता बनाता है। मनुष्य को यंत्रों पर इतना अधिक आश्रित नहीं होना चाहिए कि वह प्रकृति से ही दूर चला जाए। गांधी महिलाओं की शिक्षा के समर्थक थे। उनका मानना था कि प्राथमिक शिक्षा तो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अनिवार्य है लेकिन उसके बाद महिलाओं को अलग तरह की शिक्षा देनी जानी चाहिए जिससे उन्हें अपना घर सम्भालने में आसानी हो। साथ ही वे महिलाएं अपने बालकों को भी पढ़ा-लिखा कर अच्छा नागरिक बना सके। यही नहीं गांधी बाल विवाह के विरोधी थे। सती प्रथा के भी विरोधी थे तथा इसे अमानवीय मानते थे। दहेज लेना और देना दोनों को गांधी अनुचित मानते थे। सभी सामाजिक बुराइयों का वह विरोध करते थे। गांधी समाज में अराजकता के विरोधी थे और वह समाज में इस तरह का माहौल चाहते थे जो रामराज्य के समान हो। समाज में भाईचारा और सौहार्द स्थापित करने के लिए आर्थिक समानता आवश्यक है। उनका मानना था कि व्यक्ति को अपनी आवश्यकताएं सीमित रखनी चाहिए और उसी में अधिकतम संतुष्टि प्राप्ति करनी चाहिए तभी समाज में समानता स्थापित होगी। उनका मानना था कि व्यक्ति की अर्जित करने की प्रवृति कम हो और निर्धनता की पद्धति अपनाएं तभी समाज में सुधार होगा। वे विक्रेन्द्रित आर्थिक संगठन का समर्थन करते हैं जिससे न्यायोचित वितरण हो सके। समाज में न्यायोचित वितरण के कारण समाज में व्याप्त अनेक बुराइयों जैसे बेरोजगारी, शहरीकरण और नैतिक अवनति का भी अंत होता है। गांधी का प्रयास था कि शोषण-विहीन समाज की स्थापना हो। उनके अनुसार प्राथमिक शिक्षा जरुरी है। वे एक शिक्षाशास्त्री के रूप में मशहूर रहे हैं। भारतीय जीवन शैली को देखते हुए उन्होंने ऐसी शिक्षा प्रणाली प्रस्तुत की जिसने भारतीय जन-जीवन में प्राण फूंक दिए। उनकी शिक्षा प्रणाली में बालकों और बालिकाओं को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान था। आजकल बेरोजगारी आम समस्या बनकर उभरी है। गांधी मानते हैं कि सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए न केवल आर्थिक ढांचे में बदलाव आवश्यक है बल्कि मानव स्वभाव में परिवर्तन जरूरी है। इसके लिए गांधी सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रहचर्य के अनुसरण का भी प्रतिपादन करते हैं। दुनिया में कई आंदोलन हुए जो गांधी के आदर्शों से प्रेरित थे। विश्व शांति को कायम रखने के लिए और विश्व व्यापार संगठन के खिलाफ भी सत्याग्रह किया जो सफल रहा। आज कई देश में अपनी समस्याओं को खत्म करने के लिए सत्याग्रह अपना रहे हैं। गांधी अहिंसा के समर्थक थे। वे हिंसा और हिंसात्मक गतिविधियों का विरोध करते थे। वे मानते थे कि आधुनिक सभ्यता का उद्भव केवल हिंसक साधनों का प्रयोग करने के कारण हुआ है। गांधी शांतिपूर्ण रवैया अपनाकर आजादी पाना चाहते थे।

गांधी का शांतिपूर्ण आंदोलन न केवल उनका बल्कि भारतीय सभ्यता की भी विशिष्टता है। वे हिंसात्मक प्रयोगों और उग्रवाद से दूर रहते थे और देश के युवाओं को दूर रहने की सलाह देते थे। गांधी मानते हैं कि स्वराज्य की प्राप्ति सत्याग्रह से सम्भव है। लेकिन इसके लिए कुछ सदगुणों का पालन करना चाहिए। उन्होंने अपने सत्याग्रह आंदोलन में कई तरह के रचनात्मक आंदोलनों को जोड़ा।

गांधी कहते हैं कि सत्य ही ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है। उनके अनुसार धर्म से तात्पर्य किसी धर्म विशिष्ट से नहीं है बल्कि उस तत्व से है जो उसमें समान रूप से व्याप्त है। वे धर्म और नैतिकता में भेद नहीं मानते हैं। धर्म के मुद्दे पर वह गीता से प्रभावित दिखाई देते हैं। वे मानवता के समर्थक थे और सभी धर्मों का सम्मान करते थे। गांधी के अनुसार धर्म का संबंध किसी जाति से नहीं है बल्कि धर्म समाज में व्यवस्था बनाता है तथा रामराज्य की स्थापना करता है। गांधीवादी सोच का अलग नजरिया है जो पश्चिम के अंधानुकरण से पूर्णत: मुक्त है। आज समाज में फैली तमाम समस्याओं के समाधान के रूप में गांधी ने शरीर-श्रम का सिद्धांत का प्रतिपादन करता है। यह सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक श्रम को करने के लिए प्रेरित करता है जिससे समाज में सबकी आवश्यकताएं पूरी हों और श्रम का महत्व बढ़े। उन्होंने श्रम आधारित अर्थव्यवस्था का समर्थन किया। उनका मानना था कि श्रम आधारित अर्थव्यवस्था के बदले तकनीकी आधारित अर्थव्यवस्था अपनाएं जाने के कारण बेरोजगारी की समस्या बढ़ी है। अधिकाधिक आबादी को उत्पादन के काम में लगाया जाय तभी सामाजिक समस्याओं का अंत होगा। गांधी स्वदेशी की पद्धित अपनाते थे। वे मानते थे कि स्वदेशी तकनीक की सहायता से वे अधिकतम लोगों की जरूरतों को पूरा करना चाहते थे।

इसके तहत उन्होंने चरखे के प्रयोगों पर बहुत जोर दिया। चरखे के जरिए वह गरीबों की आवश्यकताएं पूरी करने के समर्थक थे। उनका मानना था कि चरखे के प्रयोग से आत्मनिर्भरता बढ़ती है। देश में आत्मनिर्भरता को बनाए रखने के लिए सौर ऊर्जा और स्थानीय बीजों के इस्तेमाल हिमायती थे। खेती और सिंचाई में स्थानीय तरीके अपनाने की बात करते थे। वे समाज की उपभोक्तवादी संस्कृति पर प्रहार करते हुए एक वैकल्पिक सभ्यता की बात करते हैं। वह ऐसी सभ्यता होगी जिसमें प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग को प्राथमिकता दी जाएगी। सभ्यता का पश्चिमी मॉडल

अपने से व्यक्ति उपभोक्तावाद की ओर अग्रसर होता है। उपभोक्तावाद से व्यक्ति नैतिक पतन की ओर जाता है। नैतिक उत्थान के लिए आत्मसंयम और त्याग की भावना आवश्यक है।

प्रज्ञा पाण्डेय