जग होरी, ब्रज होरा…
ब्रज की होरी अनूठी है। इस अनूठेपन का सुफल है, यह भाव-जग होरी, ब्रज होरा। ब्रज की होली से जुड़ा यह होरा भाव यहाँ होली की उन विविधताओं की ओर इंगित करता है, जिनसे खास है, ब्रज की होली। ब्रज की मंदिर और यहाँ की लोक संस्कृति ने मिलकर होली के रंगों को गहराया है। यह गहरापन यहाँ गायन से जुड़ा है तो श्रृंगार तथा पाक कला तक इस गहरेपन की व्याप्ति कहीं अधिक गहरे तक दिखती है। खास बात यह है कि लोक जगत में दिखने वाली वाचिक परम्परा के सापेक्ष ब्रज की होली के सन्दर्भ में मिलने वाले पुरा लिखित संदर्भ भी इसे खास बनाते हैं। यहाँ मंदिरों में खेले जाने वाली होली के महत्त्व को समझने की जिज्ञासा हमें उन पुरा अभिलेख-पोथियों के मध्य ला खड़ा करती है, जहाँ विदित होता है इस महोत्सव का उत्स। लगभग सवा महीने तक चलने वाली इस होली में प्रभु का कब क्या श्रृंगार होना है? क्या गायन किया जाना है? कब क्या भोग (प्रसाद) निवेदित किया जाना है? जैसी बातों से जुड़े प्राचीन लिखित विवरण इस महोत्सव के प्रति पारम्परिक सजगता, ठोस आधार और दूरदर्शिता दर्शाने वाले हैं। यह श्रद्धा के धरातल पर पल्लवित इस दूर दृष्टि का ही सुफल है कि आज होली की चर्चा होते ही ब्रज का नाम स्वतः सामने आता है। ब्रज और होली को समन्वयक यहाँ दिनों दिन बढ़ता गया। चित्रकारों ने इसे तूलिका से जीवंत किया, गायकों ने गायिकी से तो साधक रचनाकारों ने इसे अपनी वाणी से शीर्ष पर प्रतिष्ठित किया। 18वीं सदी के दौरान ब्रजवास करने वाले, राजस्थान की किशनगढ रियासत के राजा सावंत सिंह (नागरीदास) ब्रज की इस होली पर मुग्ध होकर कह उठे-
अमृत पान विमाननि बैठिवौ,नागर केती कही पै न जाई।
स्वर्ग वैकुण्ठ में होरी जो नांहि,तो कहा करैं लै, कोरी ठकुराई।।
ब्रज में होली मस्ती का पर्याय है। यहाँ लठामार होली, फूल होली, लड्डू होली, फाग आमंत्रण, दाऊजी में कपड़े के पोतनाओं से खेले जाने वाली होली, फालैन में होलिका से निकलने वाला पण्डा एवं इस दौरान होने वाले चरकुला नृत्य के साथ ही यहां की कुंज गलियों में गूंजने वाली होली की स्वर लहरियां सभी कुछ आनंद से सराबोर करतीं हैं। ब्रिटिश जिलाधिकारी एफ.एस.ग्राउस ने अपने ग्रंथ मथुरा-ए-डिस्ट्रिक्ट मैमोयर में ब्रज की होली का सविस्तार उल्लेख किया है। ब्रज में होली की यह मनभावन छठा ऐसे ही नहीं बनी, इसे स्थापित करने में ब्रज की लोक तथा मन्दिर संस्कृति ने श्यामा-श्याम की द्वापर कालीन लीलाओं को पिछले लगभग 500 वर्षों में जतनपूर्वक सहेजा है। समय के सापेक्ष आज यहां कुछ बदलाव भी दिखते हैं। ब्रज में होलिकोत्सव के आयोजन की पूर्व पीठिका काफी समृद्ध है। भक्ति के धरातल पर हम जिस वैभवशाली होली को लेकर चले थे और जिसे देख आज से लगभग 250 साल पहिले राजस्थान की किशनगढ़ रियासत के राजा सावंत सिंह यहाँ नागरीदास बन गा उठे- ‘स्वर्ग बैकुण्ठ में होरी जो नांहि, तो कहा करैं लें कोरी ठकुराई …’ उस होली का परिदर्षन आज केवल हमारी पोथियों और देवालयी गायन शैली में देखा जा सकता है। आज नई पीढ़ी नहीं जानती ब्रज की पुरानी होली में प्रयुक्त ‘चोबा’ क्या था? इसके बनाने की विधि क्या थी? अरगजा कैसे बनता था? अगरू क्या था? लोक विस्मृति एवं अन्य कारणों के चलते आज ये बातें काल्पनिक लगने लगी हैं। ब्रज में होली का पर्याय समझे जाने वाली जिस सामग्री को पिछले 500 वर्षों से गाते-गाते, न तो मंदिरों के समाजी और कीर्तनियों के गले थके और न रूकी इस लंबे अंतराल में होली के लिखियाओं की कलम। आज उस वैभवशाली होली के ये पुराने रंग इस कदर फीके हुये कि लोग इनसे प्रायः अनभिज्ञ हैं।
पोथी और गायन तक सिमटे होली के पारम्परिक रंग
नई पीढी चोबा, अगरू, अरगजा से अनभिज्ञ
आज समय के प्रभाव और लोक विस्मृति के चलते यह सामग्री केवल मंदिरों में होली की धमार और पदावलियों के गायन की शोभा बनकर रह गयी हैं। आज नई पीढ़ी नहीं जानती कि ब्रज की पुरानी होली में प्रयुक्त ‘‘चोबा’’ क्या है?ये कैसे बनता था? अरगजा तैयार करने की विधि क्या थी, ये किन चीजों से तैयार होता था? अबीर कितनी तरह के होते थे? अगरू क्या क्या था, कुमकुमा क्या था और इसी के साथ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि होली की यह सामग्री उस दौरान ब्रज में कहां से आती थी? एक जमाने में इस वैभवशाली होली का उल्लेख हमारे भक्त साधकों ने मंदिरों की होली के प्रसंगों में जी भरकर किया है लेकिन आज जानकारी के अभाव में ये बातें काल्पनिक प्रतीत होने लगी है। ज्ञान के अभाव में बहुत से लोग तो इन्हें होली काव्य का विशेषण मात्र मान बैठे हैं, जिसके चलते ब्रज की होली का यह यथार्थ भक्त कवियों के कल्पना लोक की विषयवस्तु बनकर रह गया। आज मंदिरों में टेसू का रंग तथा बाजार से सुलभ अबीर एवं गुलाल ही इन सब की पूर्ति कर रहा है।
16वीं सदी के बाद से आज तक मंदिर संस्कृति में जिसने भी श्यामा-श्याम की होली गायी और लिखी, उसकी बात इस सामग्री के बिना पूरी न हुयी। सूरदास ने लिखा है- ‘हरि संग खेलन फाग चली, चोबा चंदन अगरू अरगजा छिरकत नगर गली…’ मंदिर संस्कृति में पल्लवित ब्रजभाषा के होली साहित्य की वृहद परंपरा है, लेकिन आज प्रायः लोग इस सामग्री से जुड़ी उन जानकारियों से अनभिज्ञ है कि किस प्रक्रिया से यह सामग्री तैयार होती थी अथवा इन्हें तैयार करने में किन चीजों की जरूरत थी और इसी के साथ आज यह जानकारी भी आसानी से नहीं मिलती कि उस दौरान मंदिरों को यह सामग्री कैसे सुलभ थी?
श्रद्धा और इतिहास के धरातल पर मिला संरक्षण
भक्ति के रंग में रंगे साधकों का उद्देश्य चोबा, अगरू, अरगजा आदि से जुड़े दुनियावी ज्ञान को लिखना न था। लेखन की दृष्टि के इसी अंतर के चलते देवालयी संस्कृति में इनके मायने हम से दूर होते चले गये। लेकिन जब हम दृष्टि को यहां से हटाकर 16वीं सदी में भौतिक जगत के साधन सम्पन्न धरातल पर केन्द्रित करते है तो ज्ञात होता है कि बादशाह अकबर के दरबारी विद्वान अबुल फजल ने इनके बनाने की विधि एवं इन्हें तैयार किये जाने में प्रयुक्त सामग्री जैसी जानकारियां अपने फारसी ग्रंथ आइन-ए-अकबरी में दर्ज की थी।
16वीं सदी में ब्रज की मंदिर संस्कृति में पल्लवित होली साहित्य में रंगों के अन्तर्गत इन शब्दों की हर कालक्रम में बार-बार पुनरावृत्ति भक्ति के धरातल पर हुई है लेकिन यहाँ इन शब्दों के सविस्तार मायने नहीं मिलते। यही कारण है कि एक ही दृष्टि के अध्ययन में लगे लोग प्रायः चोबा, अरगजा, अगरू के सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी नहीं रखते, जबकि बादशाह अकबरी के दरबारी विद्वान अबुल फजल ने इनकी व्यापक जानकारियां अपनी ऐतिहासिक रचना आइन-ए-अकबरी दी हैं। चोबा के बारे में अबुल फजल लिखता है कि मिट्टी, चावल की भुसी, कपास एवं अगरू की लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े गीले करके पात्र में एक सप्ताह तक रखे जाते है तथा बर्तन के मुंह को गाय के गोबर से ढका जाता था। एक सप्ताह बाद थोड़ा पानी मिलाकर इस बर्तन को तिपाया स्टैण्ड पर रखकर गर्म करते थे तथा बर्तन के ऊपर नली लगाकर भाप को दूसरे पात्र में एकत्र किया जाता है। भाप के ठण्डा होने पर उसमें गुलाब जल भी मिलाया जाता था। इस प्रकार एक सेर अगरू से दो से पन्द्रह तोला तक चोबा प्राप्त होता था। इसी तरह अगर के पेड़ की जड़ अगरू कहलाती थी जो गुजरात से आता था तथा चांपानेर में भी होता था।
इसी तरह अरगजा के बारे लिखा है कि मेद, चोबा, बनफशा, गेहला, गुलाब, चंदन तथा कपूर के मिश्रण से यह तैयार होता था। अबीर अबरक के चूर्ण से बनता था। चंदन लाल, पीले तथा सफेद कई तरह के थे। कुमकुमा लाख की पतली-पर्त गोल गेंद में रंग भरकर तैयार होता था। गुजरात के लोग कुमकुमा बनाते थे।
भोग, राग और शृंगार से खास ब्रज की होली
ब्रज की होली का वैशिष्ट्य यहाँ इस दौरान ठाकुर जी को निवेदित किये जाने वाले आभूषण तथा वस्त्र अलंकरणों से भी जुड़ा है। ब्रज में सवा महीने तक चलने वाली होली में ऐसी विविधतायें पग-पग पर देखी जा सकती हैं। उल्लेखनीय है कि पारम्परिक रूप से मंदिरों में श्रीविग्रहों को निवेदित किये जाने वालीं यह सेवायें प्रबुद्धजनों द्वारा इस भाव के साथ लिपिबद्ध भी की जातीं रहीं कि भविष्य में भी यह स्मृतियाँ बनीं रहें। राधाबल्लभ सम्प्रदाय के अन्तर्गत हित सुधा सागर ग्रंथ में ऐसे उल्लेख देखे जा सकते हैं वहीं इन परम्पराओं का निर्वहन भी। ब्रजभाषा में उल्लिखित यह विवरण हमारी मंदिर परम्परा में इस उत्सव का गौरव बोध कराते हैं। प्रभु को निवेदित किये जाने वाले भोग एवं श्रृंगार के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त होती है-
‘माघ शु॰ 5 को श्रृंगार समय बसन्त उत्सव, बसंत धारण, कलस धरनौं, बसन्ती पोशाक श्रृंगार विशेष होय। आज से मोजा, रजाई अँगीठी नहीं धरी जांय और गुलाल सब रंग के धरे जांय। आज से श्रृंगार और सन्ध्या आरती पै किंचित् गुलाल उड़ायौ भी जाय। बसन्त के पद दोनों समय समाज में होंय, बसन्त को 4 सेर के मालपुआ तथा केशरमय लड्डू, बालूसाई आदि पकवान श्रृंगार में और बसन्ती मोहनभोग पूरी, कचौरी आदि राजभोग मेें आरोगैं। सेवाकुंज में सन्ध्या को समाज होय। माघु सु॰15 सन्ध्या को होली डांडे कौ पद, आज से होरी धमार कौ समाज प्रारम्भ होय …’
विभिन्न वैष्णव सम्प्रदायों में उक्तानुसार विवरणों की सुलभता ब्रज-होली का अपना वैशिष्ट्य है।
इसी क्रम में समाज गायन में गाये जाने वालीं पदावलियों में भी श्रृंगार के सुन्दर उल्लेख देखे जा सकते हैं। होली का उल्लेख दर्शाने वाले पारम्परिक पदों में प्रचुरता से वस्त्र तथा आभूषणोें की जानकारी मिलती है। 18वीं सदी प्रेमदास जी द्वारा रचित इस पद में वस्त्र और आभूषणों प्रयोग प्रचुरता से दिखता है।
खेलत मंजु निकुंज में, आजु होरी रँग भीनी जोरी।
परम रसिक सिरमौर रँगीले, सुन्दर श्याम सरस गोरी।।x
झमकि रही नीलांबर सारी, कंचन के फूलनि सौं री।
खमकि रही उर अरुण कंचुकी, फुँदियनि सहित हरी डोरी।।
अतरौटा अति रंग गहगह्यौ, नारंगी शोभा भारी।
बूटीं हरी बनीं कंचन सो, छपीं झिलमिलत छबि न्यारी।।
वैंणी गुही विविध फूलनि सौं, रचित माँग मोतिनि-रोरी।
सीसफूल-चन्द्रिका जराऊ, तिलक दिपत नहिं छबि थोरी।। ….
होली से जुड़े पुरा संदर्भ
होली के सन्दर्भ में मिलने वाले पुरा-उल्लेख इसकी प्राचीनता की ओर इंगित करते हैं। आरम्भ में यह उत्सव एक धार्मिक यज्ञ के रूप में मनाया जाता था। जिस समय खेतों में गेहूं-जौ की नई फसल तैयार होती थी, उस समय सब लोग उस यज्ञ को नवान्न की प्रथम आहूति देकर सम्पन्न करते थे। इस यज्ञ को ‘यवाग्रयण’ अथवा ‘नवान्नेष्टि’ कहा गया है। वर्तमान में भी होलिका दहन के दौरान होली में जौ की बाल भूनने की परंपरा है संस्कृत में अन्न की बाल को ‘होला’ कहा जाता है। इसी आधार पर इस पर्व को होली कहा गया। यह परम्परा वेद कालीन मानी जा सकती है चूंकि वेदों में यज्ञों का प्रचुर उल्लेख है। पुराण, भविष्योत्तर पुराण एवं जैमिनी मीमांसा के पूर्व ग्राह्य सूत्र तथा कथा ग्राह्य सूत्र में होली के विवरण मिलते हैं। भविष्योत्तर पुराण में लिखा है ढूंढा नामक राक्षसी के उपद्रव को शान्त करने के लिये फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के प्रदोष काल में सब लोग रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर, चंदन, अबीर, गुलाल लगाकर, पिचकारियों से रंग छिड़कें-
नाना रंगमयै वस्त्रैश्चन्दना गुरू मिश्रितेः।
अबीर गुलालं च मुखे ताम्बूल भक्षणम्।।
वंशोत्थम जलयंत्रं च चर्मयंत्रं करे धतम्। …
भारत में 6वीं शताब्दी से 8 वीं शताब्दी के मध्य संस्कृत के महान रचनाकारों में वात्सायन, हर्ष एवं भवभूति की रचनाओं में होली के उल्लेख मिलते हैं। भवभूति के ‘मालती माधव’ एवं हर्ष की रचना ‘रत्नावली’ में नर-नारियों के द्वारा होली के दौरान रंगीन जल की बौछार करने एवं गायन-वादन के उल्लेख मिलते हैं। उस काल में पिचकारियां बांस अथवा चमड़े की होती थी। जिनका आकार सींग अथवा सांप के फन जैसा होता था। वहां होली के अवसर पर गाये जाने वाले गान को ‘चर्चरी’ कहा गया है। होली के वाद्यों में विशिष्ट यंत्र ‘मर्दल’ उल्लेख मिलता है। पुरानी होली के परिदृश्य ब्रज की मंदिर संस्कृति में आज भी जीवंत है। सूरदास ने होली की चांचरियां लिखी हैं तथा यह ब्रज में होली का खास राग भी है। चांचरि शब्द होली के अवसर पर खेले जाने वाले खेल तमाशों के संदर्भ में भी प्रयुक्त भी हुआ है- ‘सूरदास मिलि चांचरि खेलै, अपने-अपने टोलैं…’ वहीं लगभग 6वीं शताब्दी का वाद्य यंत्र ‘मर्दल’ ब्रज साहित्य में ‘मादल’ अथवा ‘मादिलरा’ के रूप में मिलता है। अष्टछापी कृष्णदास ने कहा है- गिड़-गिड़ता धितां धितां मादिलरा बाजै…
ब्रज में बालकों ने संरक्षित रखे, होली की ठिठोली के पुराने नुस्खे
जग होरी ब्रज होरा… ऐसे ही नहीं, होली की मस्ती, ठिठोली, भंग की तरंग, होली का खेलना, लिखना और गाना सभी कुछ ब्रज की अपनी विशेषता है। होली के इस त्यौहार में क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी अलग ही रंग में रंगे नजर आते हैं। तरह-तरह की शरारतें जिन्हें देख क्या देशी और क्या परदेशी सभी पहिले तो ठिठकते हैं, फिर गुस्सा दिखाते हैं और आखिर में बच्चों की टोली से यह सुन ‘बुरा न मानो होली है.’ मुस्कराते हुए आगे बढ़ जाते हैं। स्थानीय जन तो बच्चों की इस शरारतपूर्ण ठिठोली से वाकिफ हैं। फिर भी वे कभी-कभी इन बच्चों के झाँसे में आ ही जाते हैं लेकिन बाह्य अंचलों से आने वाले श्रद्धालु तो बालकों के ऐसे कौतुकों को देख मंत्रमुग्ध हो, बस देखते रह जाते हैं। भले ही आज भागम-भाग की जिन्दगी में लोगों के पास समय का अभाव हो लेकिन ब्रज-वृन्दावन की गलियों में ऊधम करने वाले छोटे-छोटे बालक पारम्परिक प्रयोगों से होली का भरपूर मजा लेते देखे जा सकते हैं।
ठिठोली के हैं कई नुस्खे
बच्चों के पास ऊधम के कई नुस्खें हैं जिसमें चिल्ड्रन बैंक के नोट सड़क पर बिखेर देना, सड़क पर क्यूफिक्स के प्रयोग से रेजगारी को चिपका देना, रजनीगंधा या पान-पराग के डिब्बे में छेद करके सूतली पिरोकर, उसकी सूतली को कपड़े के सहारे से इस प्रकार बजाना कि कुत्ते के भौंकने का आभास हो, बोरी में छोटे बच्चे को बैठाकर रखना, मौहल्ले के कुत्तों को रंग-बिरंगा करके दौड़ाना, पुराने लोहे के पीपों को बजाना और इसी के साथ कपड़े का सांप बनाकर पतले धागे के सहारे, सड़क के किनारे ऐसे चलाना कि बिल्कुल असली लगे जैसे कई प्रयोग इन बच्चों ने ईजाद कर रखे हैं। संदर्भों की माने तो ब्रज में होली की यह ठिठोली लगभग 500 वर्ष पुरानी है। सूर सारावली में होली के अवसर पर ग्वालबालों के गधे पर सवार होकर बारात सजाने की बात कही है। होली के अवसर पर लोक रंजन से जुड़ी ऐसी परम्परायें कालांतर में आज भी देखने को मिल रही हैं-
राते कवच बरात सजि, खरनि भये असवार।
धूरि धातु रंग घट भरे, धर यंत्र हथियार।। …
होली से जुड़ी गारी गायन की परंपरा
मथुरा के ब्रिटिश जिलाधिकारी एफ.एस.ग्राउस ने ब्रज की होली को देखा और कलमबद्ध किया। उन्होंने बरसाने की भांड बधाई का उल्लेख अपने ग्रंथ मथुरा-ए-डिस्ट्रिक्ट मैमोयर में किया है। इसी क्रम में ब्रजभाषा के भक्ति साहित्य में भी प्रेमपगी गारी गायन के उल्लेख मिलते हैं-
श्रीभांड बधाई बरसांने की।
सब सारे बरसांने बारे, रावल बारे सारे।
जगन्नाथ के नाती सारे, वे बरसांने बारे।।
लवानियां और कटारे सारे, जे बरसांने बारे।
डोंम ठड़ेरे सबही सारे, और पत्तरा बारे।।
बाग बगीचा सब ही सारे, सारे सींचन बारे।
बिरकत और गुदरिया सारे लंबे सुतना बारे।।
बाबाजी भानोंखरि सारे, प्रेम सरोवर बारे।
खाट खटोला सबही सारे, चौका चूल्हे सारे।।…
संस्कृत साहित्य के बाद यह परम्परा भाषा में मिलती है। यहां 16वीं सदी से भक्ति साहित्य में गारी गायन ने प्रेम बरसाया जिसका मुख्य केन्द्र बरसाना रहा है। 16 से 18वीं. शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक ब्रजभाषा काव्य में होली लीला के अंतर्गत ‘गारी गायन’ का जो साहित्य भक्ति के धरातल पर लिखा गया उनका एक बड़ा पक्ष आज भी अप्रकाशित ही है। यह ब्रज की होली का अपना वैशिष्ट्य ही है कि यहां गारी की उपस्थिति भी प्रेम और माधुरी का भाव दर्शाती है। प्रेमपगी मधुर गारियों और नाना प्रकार की ठिठोलियों के मध्य ‘होली का फगुवा’ प्राप्त होने से उपजे आनंद की अभिव्यक्ति वहीं कर सकता है जिसने इस होली से साक्षात्कार किया हो।
लेखक – डॉ राजेश शर्मा