जरूरत है राजनीतिक परिष्कार की
इन आम चुनावों में बड़े विरोधाभास दिख रहे हैं। एक बड़ा विरोधाभास है राजनीतिक घोषणाओं एवं आश्वासनों का, जो तमाम अंधेरों के बीच चांद उगाने की कोशिशें कर रहा है। इन सबके बीच आप और हम उन चार अंधों को मिले हाथी की तरह है, जो अपने मापदंडों के साथ अपना-अपना सच परखने में जुटे हैं कि इर्द-गिर्द जो घट रहा है, वह सही है या गलत? अनेक प्रश्न जहन में उभर रहे हैं। सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि आज भी भारत में राष्ट्रीय भावना और देशभक्ति की भावना को मानकर नहीं चला जा सकता। देश आज जितना विभाजित और संकीर्णता ग्रस्त है उतना शायद ही कभी रहा हो। अगर हम अपनी तुलना उन देशों से करें जहां आजादी संघर्ष के बाद हासिल की गई तो हम देख सकेंगे कि वहां बार-बार देशभक्ति के लिये सरकार को आह्नान नहीं करना पड़ता और जनता स्वयं सरकार की देशभक्ति को शंका की दृष्टि से नहीं देखती। यहां तो सेना की कार्रवाही पर ही प्रश्न खडे़ किये जा रहे हैं, सेना को राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है, यह न केवल विरोधाभास है बल्कि विडम्बना है।
राजनीतिक प्रदूषण एवं उसका आपराधिक चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। राजनीति की बन चुकी मानसिकता में आचरण की पैदा हुई बुराइयों ने पूरे तंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। स्वहित और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच हमारी राजनीति में घर कर चुकी है। यह रोग राजनीति की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर दल और नेता लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है। भ्रष्ट आचरण और व्यवहार अब हमें पीड़ा नहीं देता। सबने अपने-अपने निजी सिद्धांत बना रखे हैं, भ्रष्टाचार की परिभाषा नई बना रखी है। राजनीति करने वाले सामाजिक उत्थान के लिए काम नहीं करते बल्कि उनके सामने बहुत संकीर्ण मंजिल है, वोटों की। ऐसी रणनीति अपनानी, जो उन्हें बार-बार सत्ता दिलवा सके, ही सर्वोपरि है। वोट की राजनीति और सही रूप में सामाजिक उत्थान की नीति, दोनों विपरीत ध्रुव हैं। एक राष्ट्र को संगठितकरती है, दूसरी विघटित।
राजनीति शब्द को सुनते ही कानों में अंगुलियां डालने वालों को शायद मालूम नहीं कि यह उनके रक्त में ही नहीं, सांसों में समायी हुई है, जिन्दगी उसी से चलती है, हम उसी से संचालित है। हम जो हर दिन आंख खोलते और बन्द करते हुए चैबीस घंटे की जिन्दगी पूरी करते हैं, उसमें कुछ भी राजनीति से अछूता नहीं है। हम और हमारा जीवन राजनीति में लिप्त है और वही राजनीति आम चुनावों में यहां एक अलग तरह का माहौल पैदा कर रही है जिसमें राजनीतिक दल और राजनेता एक दूसरे को मयार्दाएं सिखा रहे हैं, एक तरह से राजनीति में दूसरे को मयार्दा का पाठ पढ़ाने का खेल चल रहा है। जबकि स्वयं की सीमा और संयम किसी को भी याद नहीं है। सिर्फ दूसरों की कमियों को गिनाना एक खतरनाक खेल है, अपनी अनदेखी करने की यह आदत भारतीय राजनीति की एक ऐसी विडंबना बनती जा रही है जो न केवल राजनीतिक दलों के लिए घातक होगी बल्कि राष्ट्र को भी कमजोर बनाएगी। मयार्दाएं और संयम सबके लिए समान है और यही आदर्श स्थिति भी है।
स्पष्ट है कि इन आम चुनावों में राजनीति के इस खेल में हर कोई दूसरे को यह दिखाने-समझाने में लगा है कि वह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है। कोई यह नहीं देखना चाहता कि उसका स्वयं का पैर कहां है। यही नहीं, यह ऐसा खेल है जिसमें हर खिलाड़ी दूसरे की सीमा अपने ढंग से तय करता है। कोशिश यह दिखाने की रहती है कि दूसरा गलत खेल रहा है। अपने लिए तो सभी यह मानकर चलते हैं कि उनसे गलती हो ही नहीं सकती। हमारी राजनीति के इस चरित्र को समझने की जरूरत सिर्फ राजनेताओं को ही नहीं है, सामान्य नागरिकों के लिए भी यह समझना जरूरी है कि वह इस खेल को समझें। संभवत भारत के लोग इस खेल को समझने के साथ-साथ एक नये जिम्मेदारीपूर्ण अहसास को भी समझ रहे हैं। यह शुभ लक्षण है कि भारत में यह एहसास उभर रहा है कि तथाकथित राजनेता या ऊपर से आच्छादित कुछ लोगों की प्रगति देश में आनन्द और शांति के लिये पर्याप्त नहीं है, इसलिये नरेन्द्र मोदी जैसे संवेदनशील और स्वाभिमानी व्यक्तियों में राजनीति का एक नया एहसास अंकुरित हो रहा है जिसमें संघर्ष और निर्माण के तत्व हैं। इसमें संदेह नहीं कि किसी भी व्यवस्था में आचरण की सीमाएं हुआ करती हैं। व्यवस्था में रहने वालों को इन सीमाओं का आदर करना सीखना चाहिए, तभी व्यवस्था बनी रह सकती है। हमारे राजनेता एक-दूसरे को अपनी-अपनी मयार्दा का पालन करने की सलाह दे रहे हैं, तो इसमें कहीं कुछ गलत नहीं है। गलत तो यह बात है कि हर कोई दूसरे के आचरण पर निगाह रखना चाहता है, खुद को देखना नहीं चाहता। इससे अराजकता की ऐसी स्थिति बनती है जिसमें न साफ दिख पाता है और न ही कुछ साफ समझ आता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि हर एक को अपनी मयार्दा में रहना चाहिए। राजनीतिक परिपक्वता और समय का तकाजा है कि हम दूसरों की ही नहीं अपनी मयार्दाएं भी समझें और उसके अनुरूप आचरण करें। यह भी जरूरी है कि हम अपने को दूसरों से अधिक उजला समझने की प्रवृत्ति से भी बचें। हमें यह भी एहसास होना चाहिए कि जब हम किसी की ओर एक उंगली उठाते हैं तो शेष उंगलियां हमारी स्वयं की ओर उठती हैं। हम स्वयं को दर्पण में देखने की आदत डालें। दूसरों को दागी बताने से पहले अपने दागों को पहचानें।
पवित्रता का आदि बिन्दु है स्वस्थता। पवित्रता निरावरण होती है। आज राजनीति को पवित्रता की जरूरत है। पवित्रता की भूमिका निर्मित करने के लिए पूर्व भूमिका है आत्मनिरीक्षण। किस सीमा तक विकारों के पर्यावरण से हमारा व्यक्तित्व प्रदूषित है? यह जानकर ही हम विकारों का परिष्कार कर सकते हैं। परिष्कार के लिए खुद से बड़ा कोई खुदा नहीं होता। महात्मा गांधी के शब्दों में-ह्यह्यपवित्रता की साधना के लिए जरूरी है बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो।ह्णह्ण भगवान महावीर ने संयमपूर्वक चर्या को जरूरी माना है। पवित्रता का सच्चा आईना है व्यक्ति का मन, विचार, चिंतन और कर्म। इन आम चुनावों की एक बड़ी विडम्बना है कि इसमें कोई भी कद्दावर राजनेताओं नहीं है जो यह सीख दे सके हैं कि सब अपने-अपने आईने में स्वयं को देखें और अपनी कमियों का परिष्कार करें। स्वयं के द्वारा स्वयं का दर्शन ही वास्तविक राजनीति का हार्द है। नैतिकता की मांग है कि सत्ता के लालच अथवा राजनीतिक स्वार्थ के लिए हकदार का, गुणवंत का, श्रेष्ठता का हक नहीं छीना जाए। राजनीति को शैतानों की शरणस्थली मानना एक शर्मनाक विवशता है। लेकिन कतई जरूरी नहीं कि इस विवशता को हम हमेशा ढोते ही रहें। अपराधियों को टिकट देना, उन्हें जीता कर संसद में लाना, उनकी हरकतों को नजर अंदाज करना आदि राजनीतिक दलों की विवशता हो सकती है, लेकिन देश के जागरूक एवं जिम्मेदार मतदाता की नहीं? ?
राजनीति को शैतानों की शरणस्थली मानना एक शर्मनाक विवशता है। लेकिन कतई जरूरी नहीं कि इस विवशता को हम हमेशा ढोते ही रहें। अपराधियों को टिकट देना, उन्हें जीता कर संसद में लाना, उनकी हरकतों को नजर अंदाज करना आदि राजनीतिक दलों की विवशता हो सकती है, लेकिन देश के जागरूक एवं जिम्मेदार मतदाता की नहीं?
मधुसूदन भट्ट