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बहुत पुरानी है साहित्य और सिनेमा की साझेदारी, साहित्यकार डॉ. महेश चंद्र धाकड़

बहुत पुरानी है साहित्य और सिनेमा की साझेदारी, सिल्वर स्क्रीन पर कलम के कमाल दिखाकर दर्शकों को रुलाते-हँसाते रहे साहित्यकार डॉ. महेश चंद्र धाकड़

अच्छी विषयवस्तु के बिना सिल्वर स्क्रीन पर कोई कमाल नहीं दिखाया जा सकता। एक संवाद सिनेमा हॉल में सिक्के उछलवा सकता है। सीटियाँ बजवा सकता है। कलम के कमाल बिना ये संभव नहीं। फिल्मकार साहित्यिक कृतियों के प्रति इसीलिए आकर्षित होते रहे हैं। यूँ भी साहित्य को समाज का दर्पण कहते हैं, जो समाज में घटित है वही सिनेमा के पर्दे पर दिखे तो हॉल तालियों-सीटियों से गूँजता है। साहित्य-समाज-सिनेमा के संबंधों की परस्पर साझेदारी पुरानी है। साहित्यिक कृतियों पर तमाम फिल्में बनीं। कुछ हिट हुईं तो कुछ μलॉप। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म निर्माण का सिलसिला अच्छी कथावस्तु की आस में बदस्तूर जारी है। मसलन याद करो सुपर हिट फिल्म आँधी और मौसम के संवाद! साहित्यकार कमलेश्वर के उपन्यास पर आधारित गुलजार निर्देशित फिल्म आँधी में गुलजार और भूषण बनमाली की कलम से निकले संवादों में नायक जेके (संजीव कुमार) और नायिका आरती देवी (सुचित्रा सेन) के बीच रूमानी संबंधों में अंतर्मन को छूकर झंकृत कर देने की एक झलक यहाँ पेश है…

जेके-“सुनो आरती, ये जो फूलों की बेलें नजर आती है ना, दरअसल ये बेलें नहीं हैं, अरबी में आयतें लिखीं हैं। इसे दिन के वक़्त देखना चाहिये, बिल्कुल साफ नजर आती हैं। दिन के वक़्त ये सारा पानी से भरा रहता है. दिन के वक़्त जब ये…!”

आरती-“दिन की बात क्यों कर रहे हो, कहां आ पाऊंगी मैं दिन में!”

जेके-“ये जो चांद है ना, इसे रात में देखना। ये दिन में नहीं निकलता।”

आरती-“ये तो रोज निकलता होगा?”

जेके-“हां, लेकिन बीच में अमावस आ जाती है। वैसे तो अमावस पन्द्रह दिन की होती है, लेकिन इस बार बहुत लम्बी थी!”

आरती-“नौ बरस लम्बी थी ना?” सिनेमा में लंबा दौर साहित्यिक लेखकों अथवा विशेषज्ञ सिने लेखकों का रहा है, जिसने एक मजबूत आधार सिनेमा को स्थापित करने में दिया। अभावों और कम पारिश्रमिक में भी लेखकों ने शानदार कहानियों को लिखा जिन पर बनी फिल्में सफल हुईं। हालांकि बाद के वर्षों में जब लेखकों को नाम और दाम दोनों ज्यादा मिलने लगे तो बहुतेरे निर्देशक खुद लेखक बन गए। यहीं से विशेष रचनात्मक विधा के रूप में लेखन पहचान खोने लगा, आज ज्यादातर फिल्मों के लेखक उनके निर्देशक होते हैं, लिहाजा उनकी फिल्मों की कहानियों में वो विशेषज्ञ लेखकों जैसी बात नहीं दिखती, क्योंकि सत्य है कि लेखन अंशकालिक नहीं, वरन पूर्णकालिक पेशा है। इसके लिए अनवरत साधनारत रहना पड़ता है बिल्कुल एक संगीतकार की तरह। लेखक को किसी कृति को सृजित करने से पहले पूरी तरह से समाज से जुड़कर और इसके समाज-मनोवैज्ञानिक अध्ययन के बाद ही उस कृति के लेखन के लिए तानाबाना बुनना पड़ता है, जो अंशकालिक लेखक के बस की बात नहीं। भाषा में विविधता और साहित्यिक सृजन की खूबियां समाहित करने के लिए लेखक का पूर्णकालिक होना जरूरी है। फिल्मकारों को किसी कमजोर कहानी पर या बाजार की मांग के अनुरूप कहानी गढ़ने के बजाय किसी अच्छी साहित्यिक कृति पर अथवा अच्छी समझ वाले लेखक से ही लेखन का कार्य करवाना चाहिए, ताकि उस कहानी पर फिल्म निर्माण से समाज को मनोरंजन भी मिले और कोई सामाजिक संदेश भी मिले। लेखन कोई ग्लैमरस प्रोफेशन नहीं, इसमें तो समाज के गहरे अध्ययन से प्राप्त अनुभूतियों को शब्दों में गढ़ने की कला आनी जरूरी है। अच्छे लेखकों की कमी से जूझते सिनेमा की जरूरत को फिलहाल साहित्य का केवल पुराना खजाना ही पूरा नहीं कर सकता, क्योंकि नए-आधुनिक विषय सिनेमा की जरूरत हैं तो दर्शकों की मांग भी हैं। साहित्य और सिनेमा दोनों एक दूसरे के पूरक माने गए हैं, दोनों का चोली-दामन का साथ रहा है। इनकी जुगलबंदी ने सिने दर्शकों का मनोरंजन भी किया और सार्थक सामाजिक संदेश भी दिया। सिनेमा के आगाज के साथ ही भारत में 1913 में बनी पहली फीचर फिल्म आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक हरिश्चंद्र से प्रेरित होकर बनाई थी। सिनेमा की शुरूआत पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण से हुई। सत्य हरिश्चन्द्र के अलावा भक्त प्रह्लाद, लंका दहन, कालिय मर्दन, अयोध्या का राजा, सैरन्ध्री सरीखी फिल्में धार्मिक ग्रंथों की कथाओं को लेकर बनीं। भले इनका धार्मिक-आर्थिक के साथ सामाजिक उद्देश्य भी था। सिनेमा में पहली बार कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का आगमन हुआ और मानवीय संवेदनाओं को उकेरने का सिलसिला शुरू हुआ। सन 1933 में उनकी कहानी पर मोहन भावनानी के निर्देशन में फिल्म मिल मजदूर बनी, इसमें निर्देशक ने उनकी मूल कहानी में कुछ बदलाव किए, जो प्रेमचंद को पसंद नहीं आए। प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ी पर सत्यजीत रॉय ने फिल्म बनाई, जो दुनिया भर ने सराही। 1934 में उनकी कृतियों पर नवजीवन व सेवासदन फिल्म बनीं दुर्भाग्य से μलॉप हुईं। भगवतीचरण वर्मा के अमर उपन्यास चित्रलेखा पर भी फिल्में बनीं, जिनमें एक सफल भी रही। फिल्म का एक गीत एक फलसफे को बयां करता है- “संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे, इस लोक को भी अपना ना सके, उस लोक में भी पछताओगे, संसार से भागे फिरते हो…!” पांडेय बेचन शर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु, चतुरसेन शास्त्री की रचनाओं पर भी फिल्में बनीं। प्रेमचंद और उपेंद्रनाथ अश्क सिनेमा से जुड़े तो सही लेकिन मोहभंग हुआ तो साहित्य की दुनिया में लौट गए। चौथे दशक से फिल्मों में सामाजिक कथाओं की जरूरत महसूस होने लगी तो फिल्मकारों का समकालीन साहित्य के रचनाकारों की रचनाओं की ओर रुख जरूरी हो गया। नतीजतन मण्टो की कृतियों का सहारा लेना पड़ा। उनकी कृतियों पर किसान कन्या, मिर्जा गालिब, बदनाम सरीखी फिल्में बनीं। मण्टों की कहानी पर बनी फिल्म अछूत कन्या सुपरहिट हुई और सार्थक संदेश देती दिखी। ताजनगरी के अमृतलाल नागर ने भी दिखाया कलम का कमाल आगरा में जन्मे अमृतलाल नागर ने भी हिंदी सिनेमा में कलम से कमाल दिखाया। 1948 में आयी फिल्म कल्पना में उनकी पटकथा और 1942 में आयी फिल्म कुँवारा बाप में उनके गीत खूब सराहे गए। सातवें दशक में सिनेमा में हिंदी साहित्यकारों का सुनहरा दौर शुरू हुआ। इसमें कमलेश्वर का खास योगदान रहा। उपेंद्रनाथ अश्क व अमृतलाल नागर के बाद कमलेश्वर ही ऐसे साहित्यकार हुए, जिन्होंने सिनेमा की भाषा और जरूरत को बेहतर ढंग से समझा। गुलजार ने कमलेश्वर की कृति पर आंधी व मौसम फिल्म बनाईं, दोनों मील का पत्थर साबित हुईं। ख्वाजा अहमद अब्बास, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, मनोहर श्याम जोशी, राजेन्द्र यादव, रामवृक्ष बेनीपुरी, राही मासूम रजा, सुरेन्द्र वर्मा, नीरज, नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, हरिवंश राय बच्चन, कैफी आजमी, शैलेन्द्र, मजरूह सुल्तानपुरी और शकील बदायूँनी आदि ने भी अच्छा लेखन किया। अन्य भाषाओं के फिल्मकारों व साहित्य को भी अपनाया बांग्लाभाषी बासु चटर्जी, जिन्होंने मन्नू भंडारी की कहानी यही सच पर रजनीगंधा फिल्म बनाई।। बांग्ला लेखक शरतचंद्र के उपन्यास देवदास पर हिन्दी में चार फिल्में बनीं, जो सफल रहीं। मणि कौल ने हिंदी साहित्य को महत्त्व दिया। उनके बाद मोहन राकेश, विजयदान देथा, मुक्तिबोध, विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं पर फिल्में बनीं। कुमार शहानी ने निर्मल वर्मा की कहानी माया दर्पण पर फिल्म बनाई। साहित्यिक रचनाओं पर दामुल, परिणति, पतंग, कोख सरीखी फिल्में बनीं। 1971 में आयी तेरे मेरे सपने एजे कुरियन की कृति द सिटाडेल पर बनी, जो हिंदी के अलावा बांग्ला और तेलगू में भी बनी। सत्यजीत रॉय, मृणाल सेन, कमाल अमरोही, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, एम. एस. सत्थू, एन. चंद्रा, मुजμफर अली, गोविन्द निहलानी ने साहित्य, सिनेमा व समाज का सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयास किया, लेकिन इनको आर्ट सिनेमा के फिल्मकार की श्रेणी में रख दिया। साहित्यिक कृतियों पर फिल्में लाभ का सौदा नहीं होतीं यह धारणा बलवती हुई। इसे बल प्रदान किया साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों की असफलता ने। प्रेमचंद की कृतियों पर बनीं गोदान, सद्गति, दो बैलों की कथा, फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास पर बनी तीसरी कसम, मन्नू भंडारी की रचनाओं पर आधारित यही सच है, आपका बंटी और महाभोज, शैवाल की कहानी पर बनी दामुल, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित सूरज का सातवाँ घोड़ा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी पर आधारित उसने कहा था, राजेंदर सिंह बेदी के उपन्यास पर बनी एक चादर मैली सी और संस्कृत की रचना मृच्छकटिकम् पर आधारित उत्सव का असफल होना सिनेमा की साहित्य से निरंतर दूरी की वजह बना। भले μलॉप होने के कुछ और कारण रहे, लेकिन यह धारणा घर कर गई कि साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों से पैसा नहीं कमा सकते। कमलेश्वर को सफलता मिली, मगर तब जब साहित्यिक लेखन के इतर फॉमूर्लाबद्ध कथानक रचने लगे। उनकी कहानियों पर द बर्निंग ट्रेन, राम-बलराम, सौतन फिल्म बनीं। सिनेमा में जितने सफल शायर और कवि हुए उतने साहित्यकार नहीं सिनेमा में जितने सफल कवि व शायर हुए उतने साहित्यिक लेखक नहीं। क्योंकि उन्हें तो निमार्ता िनर्देशक के कहे अनुसार किसी सिचुएशन के मुताबिक गीत या गजल भर लिखनी है, जिसमें सिनेमा के अन्य जरूरी आयामों से लेना-देना नहीं। साहित्यकारों की समस्या है वे अमूमन बन्धनों में बँधकर सृजन पसन्द नहीं करते। यही कारण सिनेमा से दूर भागते हैं। उन्हें पता होता है निमार्ता या निर्देशक के दबाव में कहानी में बदलाव करने पड़ सकते हैं। अधिकांश साहित्यकार फिल्म निर्माण से जुड़े तकनीकी पहलुओं से अनभिज्ञ, लिहाजा कैमरे की जरूरत के मुताबिक कथ्य देने में असफल हैं। नवें दशक में भूपेन हजारिका की फिल्म रूदाली ने समाज, साहित्य और सिनेमा की साझेदारी को आर्ट सिनेमा के सांचे से बाहर निकालने में अहम भूमिका निभाई और इस धारणा को पुन: स्थापित किया कि साहित्य से जुड़ी और समाज की सच्ची तस्वीर दिखाने वाली फिल्में पर्दे पर हिट हो सकती हैं बशर्ते साहित्यिक संवेदनाओं का सिनेमाई रूपांतरण सशक्त और सफलतापूर्वक हो। ? समसामयिक सिनेमा में साहित्य के चितेरे फिल्मकारों ने बनाईं फिल्में साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों की असफलता ने हतोत्साहित नहीं किया, समसामयिक सिनेमा ने भी साहित्यिक कृतियों पर फिल्में दीं हैं। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास पर 2002 में फिर देवदास फिल्म बनी, जिसको संजय लीला भंसाली ने बनाया। वर्ष 2003 में विशाल भारद्वाज निर्देशित मकबूल आयी, यह फिल्म शेक्सपियर के उपन्यास मैकबेथ पर आधारित है। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास परिणीता पर फिर 2006 में फिल्म बनी परिणीता, वर्ष 2006 में ही विशाल भारद्वाज ने ओमकारा दी, जो शेक्सपियर के उपन्यास आॅथेलो पर आधारित है। वर्ष 2007 में संजय लीला भन्साली ने साँवरिया दी, जो फिदौर दोस्तोवस्की की शॉर्ट स्टोरी व्हाइट नाइट्स पर आधारित है। वर्ष 2009 में राजकुमार हीरानी की थ्री ईडीयट्स आयी जो चेतन भगत के उपन्यास फाइव पॉइंट्स समवन पर आधारित थी। वर्ष 2014 में विशाल भारद्वाज ने शेक्सपियर की कहानी हैमलेट पर हैदर बनाई। 2014 में टू स्टेट्स चेतन भगत के उपन्यास टू स्टेट्स पर आधारित है।