हिन्दू नववर्ष के दिन ही सूर्योदय के साथ हुआ था सृष्टि का प्रारंभ
राष्ट्रीय स्वाभिमान और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने वाला पुण्य दिवस हिंदू नव वर्ष चैत्र मास की प्रतिपदा के दिन मनाया जाता हैे इस दिन से चैत्र नवरात्रि की शुरूआत होती है। महाराष्ट्र में इस दिन को गुड़ी पड़वा कहा जाता है और दक्षिण भारत में इसे उगादि कहा जाता है। विक्रम संवत को नव संवत्सर भी कहा जाता है। संवत्सर 5 प्रकार का होता है जिसमें सौर, चंद्र, नक्षत्र, सावन और अधिमास आते हैं। हालांकि कई विद्वानों का मत है कि भारत में विक्रमी संवत से भी पहले लगभग 700 ई.पू. हिंदुओं का प्राचीन सप्तर्षि संवत अस्तित्व में आ चुका था। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नव वर्ष प्रारंभ होता है। इसी दिन सूर्योदय के साथ सृष्टि का प्रारंभ परमात्मा ने किया था। अर्थात इस दिन सृष्टि प्रारंभ हुई थी तब से यह गणना चली आ रही है।
डॉ. धीरेन्द्र कुमार त्रिपाठी
यह नववर्ष किसी जाति, वर्ग, देश, संप्रदाय का नहीं है अपितु यह मानव मात्र का नववर्ष है। यह पर्व विशुद्ध रूप से भौगोलिक पर्व है क्योंकि प्राकृतिक दृष्टि से भी वृक्ष वनस्पति फूल पत्तियों में भी नयापन दिखाई देता है। वृक्षों में नई-नई कोपलें आती हैं। वसंत ऋतु का वर्चस्व चारों ओर दिखाई देता है। मनुष्य के शरीर में नया रक्त बनता है। हर जगह परिवर्तन एवं नयापन दिखाई पड़ता है। रवि की नई फसल घर में आने से कृषक के साथ संपूर्ण समाज प्रसन्नचित होता है। वैश्य व्यापारी वर्ग का भी इकोनॉमिक दृष्टि से मार्च महीना इण्डिंग (समापन) माना जाता है। इससे यह पता चलता है कि जनवरी साल का पहला महीना नहीं है पहला महीना तो चैत्र है जो लगभग मार्च-अप्रैल में पड़ता है। 1 जनवरी में नया जैसा कुछ नहीं होता किंतु अभी चैत्र माह में देखिए नई ऋतु, नई फसल, नई पवन, नई खुशबू, नई चेतना, नया रक्त, नई उमंग, नया खाता, नया संवत्सर, नया माह, नया दिन हर जगह नवीनता है। यह नवीनता हमें नई उर्जा प्रदान करती है। नव वर्ष को शास्त्रीय भाषा में नवसंवत्सर (संवत्सरेष्टि) कहते हैं। इस समय सूर्य मेष राशि से गुजरता है इसलिए इसे मेष संक्रांति भी कहते हैं। प्राचीन काल में नव-वर्ष को वर्ष के सबसे बड़े उत्सव के रूप में मनाते थे। यह रीत आजकल भी दिखाई देती है। जैसे महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मनाया जाता है तथा बंगाल में पइला पहला वैशाख और गुजरात आदि अनेक प्रांतों में इसके विभिन्न रूप हैं।
नववर्ष का प्राचीन एवं ऐतिहासिक महत्व
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही परमात्मा ने 1960853120 वर्ष पूर्व यौवनावस्था प्राप्त मानव की प्रथम पीढ़ी को इस पृथ्वी माता के गर्भ से जन्म दिया था। इस कारण यह मानव सृष्टि संवत है।
1. इसी दिन परमात्मा ने अग्नि वायु आदित्य अंगिरा चार ऋषियों को समस्त ज्ञान विज्ञान का मूल रूप में संदेश क्रमश: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में दिया था। इस कारण इस वर्ष को ही वेद संवत भी कहते हैं।
2. आज के दिन ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त कर वैदिक धर्म की ध्वजा फहराई थी।
3. आज ही से कली संवत तथा भारतीय विक्रम संवत युधिष्ठिर संवत प्रारंभ होता है।
4. आज ही के शुभ दिन विश्व वंद्य अद्वितीय वेद द्रष्टा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संसार में वेद धर्म के माध्यम से सब के कल्याणार्थ आर्य समाज की स्थापना की थी। इसी भावना को ऋषि ने आर्य समाज के छठे नियम में अभिव्यक्त करते हुए लिखा- ”संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना”।
5. आज ही के शुभ दिन संसार के समस्त सनातन धर्म अनुयायियों का दैविक बल जगाने के लिए धर्मराज्य की स्थापना की गयी थी। महानुभावों! इन सब कारणों से यह संवत केवल भारतीय या किसी पंथ विशेष के मानने वालों का नहीं अपितु संपूर्ण विश्व मानवों के लिए है।
आइए! हम सार्वभौम संवत को निम्न प्रकार से उत्साह पूर्वक मनाएं-
1. यह संवत मानव संवत है इस कारण हम सब स्वयं को एक परमात्मा की संतान समझकर मानव मात्र से प्रेम करना सीखें। जन्मना ऊंच- नीच की भावना, सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता, संकीर्णता आदि भेदभाव को पाप मानकर विश्वबंधुत्व एवं प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव जगाएं। अमानवीयता व दानवता का नाश तथा मानवता की रक्षा का व्रत लें।
2. आज वेद संवत भी प्रारंभ है। इस कारण हम सब अनेक मत पंथों के जाल से निकल कर संपूर्ण भूमंडल पर एक वेद धर्म को अपनाकर प्रभु कार्य के ही पथिक बनें। हम भिन्न-भिन्न समयों पर मानवों से चलाए पंथों के जाल में न फसकर मानव को मानव से दूर न करें। जिस वेद धर्म का लगभग 2 अरब वर्ष से सुराज्य इस भूमंडल पर रहा उस समय (महाभारत से पूर्व तक) संपूर्ण विश्व त्रिविध तापों से मुक्त होकर मानव सुखी, समृद्धि व आनंदित था। किसी मजहब का नाम मात्र तक ना था। इसलिए उस वैदिक युग को वापस लाने हेतु सर्वात्मना समर्पण का व्रत लें। स्मरण रहे धर्म मानव मात्र का एक ही है, वह है वैदिक धर्म।
3. वैदिक धर्म के प्रतिपालक मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम की विजय दिवस पर हम आज उस महापुरुष की स्मृति में उनके आदर्शों को अपनाकर ईश्वर भक्त, आर्य संस्कृति के रक्षक, वेद भक्त, सच्चे वेदज्ञ गुरु भक्त, मित्र व भातृवत्सल, दुष्ट संहारक, वीर, साहसी, आर्य पुरुष व प्राणी मात्र के प्रिय बने। रावण की भोगवादी सभ्यता के पोषक ना बनें।
4. आज राष्ट्रीय संवत पर महाराज युधिष्ठिर विक्रमादित्य आदि की स्मृति में अपने प्यारे आर्यावर्त भारत देश की एकता अखंडता एवं समृद्धि की रक्षा का व्रत लें। राष्ट्रीय स्वाभिमान का संचार करते हुए देश की संपत्ति की सुरक्षा संरक्षा के व्रति बनें। जर्जरीभूत होते एवं जलते उजड़ते देश में इमानदारी, प्राचीन सांस्कृतिक गौरव, सत्यनिष्ठा, देशभक्ति, कर्तव्यपरायणता व वीरता का संचार करें।
5. आज आर्य समाज स्थापना दिवस होने के कारण ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ वेद के आदेशानुसार सच्चे अर्थों में आर्य बनें एवं संसार को आर्य बनाएं न की नामधारी आर्य। आर्य शब्द का अर्थ है- सत्य विज्ञान न्याय से युक्त वैदिक अर्थात ईश्वरीय मयार्दाओं का पूर्ण पालक, सत्याग्रही, न्यायकारी, दयालु, निश्छल, परोपकारी, मानवतावादी व्यक्ति। इस दिवस पर हम ऐसा ही बनने का व्रत लें तभी सच्चे अर्थों में आर्य (श्रेष्ठ मानव) कहलाने योग्य होंगे। आर्यत्व आत्मा व अंत: करण का विषय है, न कि कथन मात्र का। आधुनिक सभ्यता की अन्धी दौड़ में समाज का एक वर्ग इस पुण्य दिवस को विस्मृत कर चुका है। आवश्यकता है इस दिन के इतिहास के बारे में जानकारी लेकर प्रेरणा लेने का कार्य करें। भारतीय संस्कृति की पहचान विक्रमी संवत्सर में है, न कि अंग्रेजी नववर्ष से। हमारा स्वाभिमान विक्रमी संवत्सर को मनाने से ही जाग्रत हो सकता है, न कि रात भर झूमकर एक जनवरी की सुबह सो जाने से। इसका सशक्त उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का यह कथन है, जिसे उन्होंने 1 जनवरी को मिले शुभकामना सन्देश के जवाब में कहा था कि मेरे देश का सम्मान वीर विक्रमी नव संवत्सर से है। 1 जनवरी गुलामी की दास्तान है।
वर्ष प्रतिपदा /भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक महत्व
1. वसन्त ऋतु का आरम्भ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगन्ध से भरी होती है।
2. फसल पकने का प्रारम्भ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
3. नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है। अत: हमारा नव वर्ष कई कारणों को समेटे हुए है। अंग्रेजी नववर्ष न मना कर भारतीय नववर्ष हर्षोउल्लास के साथ मनायें और दूसरों को भी मनाने के लिए प्रेरित करें।
राष्ट्रीय संवत
भारतवर्ष में इस समय देशी-विदेशी मूल के अनेक सम्वतों का प्रचलन है। किन्तु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय सम्वत यदि कोई है तो वह विक्रम सम्वत ही है। आज से 2072 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से विक्रम सम्वत का भी आरम्भ हुआ था। प्राचीनकाल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया सम्वत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसन्त ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीनकाल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसन्त ऋतु में आने वाले वासन्तिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्यतिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर सम्वत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत राष्ट्र इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवन्दन करता है। दरअसल भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धन्वन्तरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राजकोष से धन नहीं लेते थे।
हिंदू पंचांग में किन वैज्ञानिक आधारों के जरिये की गयी है — काल गणना
भारतीय कालगणना का विवेचन अनेक ग्रंथों में किया गया है। मय के सूर्यसिद्धांत आदि प्रत्यक्ष ज्योतिष ग्रंथों से लेकर मनुस्मृति जैसे धर्मशास्त्रों तथा भागवत जैसे आख्यान माने जाने वाले पुराणों तक में कालगणना के विज्ञान का विशद विवेचन प्राप्त होता है। भारतीय विज्ञान की यह विशेषता है कि वह हमेशा प्रत्यक्ष और प्रकृति से तादात्म्य बनाकर चलता है। इसलिए काल की गणनाएं भी इससे ही जुड़ी हुई हैं। हमारे शास्त्रकार स्पष्ट रूप से बतलाते हैं कि ब्रह्मांड में भिन्न-भिन्न लोकों में काल की गति भी भिन्न-भिन्न होती है। यहाँ हम देखेंगे कि पृथ्वी पर हमने काल की कैसी और कितनी सूक्ष्म गणनाएं की थीं। काल की सबसे छोटी ईकाई भारतीय शास्त्रों में परमाणु की मानी गई है। दो परमाणु के बराबर एक अणु होता है और तीन अणु काल के बराबर एक त्रसरेणु काल होता है।
एक त्रसरेणु काल की माप बताते हुए भारतीय शास्त्रकारों ने लिखा है कि किसी द्वार की झिरी में से आ रहे सूर्य के प्रकाश में जो कण उड़ते हुए दिखते हैं, उसे ही त्रसरेणु कहते हैं। प्रकाश को इसे पार करने में जितना समय लगता है, उसे ही एक त्रसरेणु काल कहते हैं। तीन त्रसरेणु काल को एक त्रुटि कहा गया है। त्रुटि से काल की गणना को बढ़ाते हुए परार्ध तक ले जाया गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण ( प्रथम खण्ड,73। 4-1, हेमाद्रि कृत चतुर्वर्ग चिन्तामणि, काल खंड)
1 लघु अक्षर उच्चारण 1 निमेष
2 निमेष 1 त्रुटि
10 त्रुटि 1 प्राण
6 प्राण 1 विनाडिका
60 विनाडिका 1 नाडिका
60 नाडिका 1 मुहूर्त
30 मुहूर्त 1 अहोरात्र
वर्ष की गणना को आगे बढ़ाते हुए भारतीय मनीषियों ने पूरे ब्रह्मांड की आयु की भी गणना की। उन्होंने सौर वर्ष के बाद दिव्य वर्ष से लेकर परार्ध तक की गणना की है। उसका चार्ट निम्नानुसार है-
कलि युग = 4,32,000 वर्ष
द्वापर युग = 8,64,000 वर्ष (2 कलि)
त्रेता युग = 12,96,000 वर्ष (3 कलि)
कृत युग =17,28,000 वर्ष (4 कलि)
ये दो मंत्र हैं –
दादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य।
आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानी विंशतिश्च तस्थु:॥ (ऋग्वेद 1/164/11)
द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत।
तस्मिन्त्साकं त्रिंशता न शङ्कवोऽर्पिता: षष्टिर्न चलाचलास: ॥ (ऋग्वेद 1/164/48)
इन दो मंत्रों में यह स्पष्ट किया गया है कि संवत्सर में बारह अरे या प्रविधियाँ हैं। 360 शंकु यानी दिन अथवा 729 जोड़े यानी रात-दिन हैं। यहाँ इसे एक चक्र के रूप में निरूपित किया गया है, जोकि पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर की चक्राकार गति तथा काल की चक्रीय होने दोनों का ही प्रतीक है। इससे स्पष्ट है कि संवत्सर यानी एक वर्ष में 360 दिन और बारह मास होने की संकल्पना भारत में एकदम प्रारंभ से ही है। परंतु इस सामान्य आधार को आगे बढ़ाते हुए भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने पृथ्वी की अयन गति को जाना और इसके बाद उन्होंने वर्ष का वास्तविक परिगणन भी किया। मासों की गणना या निर्माण पृथ्वी की अपनी कक्षा से नहीं की गई, इसका निर्धारण चंद्रमा के पृथिवी के चारों ओर की कक्षा से किया गया। इसलिए इसे चांद्रमास भी कहते हैं। चंद्रमा का एक मास 30 चंद्र तिथियों का होता है, परंतु वह सौर मास से लगभग आधा दिन छोटा होता है। दोनों मासों में सामंजस्य बैठाने के लिए भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने मलमास या अधिमास का विधान किया। प्रश्न उठता है जो कि आज के ग्रिगोरियन कैलेंडर के सभी समर्थक अधिक जोरशोर से उठाते हैं, कि सौर मास की उपस्थिति और उसकी गणना की सरलता के बाद भी चांद्र मासों की गणना क्यों की जाए? वास्तव में चंद्रमा से मासों का निर्धारण केवल गणना का एक प्रकार मात्र नहीं है, बल्कि इसका वैज्ञानिक आधार भी है। यह आज हमें ठीक से ज्ञात हो चुका है कि चंद्रमा ही पृथ्वी पर वातावरण संबंधी अनेक बदलावों को लाने का कारण है। वेदों में इस सृष्टि को अग्निसोमात्मकं यानी कि अग्नि तथा सोम से निर्मित तथा संचालित कहा गया है। सूर्य अग्नि है और चंद्रमा सोम है। कृषि में हम इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकते हैं। चंद्रमा के कारण पौधों की बालियों में रस भरता है, और सूर्य के कारण वे पकती हैं। मानव की पूरी सभ्यता आदि काल से कृषि आधारित रही है और चांद्र मास की गणना कृषिकार्य में सहायक है। यही कारण है कि सौर मासों की गणना करने के बाद भी भारतीय आचार्यों ने चांद्रमासों की भी गणना की। विक्रम संवत विश्व का सर्वश्रेष्ठ सौर-चांद्र सामंजस्य वाला संवत है। आज उस गणना को भुलाने के कारण कृषि में जो बाधाएं आ रही है, वे किसी से छिपी नहीं हैं, भले ही उसका सही कारण नही समझने के कारण उसके निदान कुछ और किए जा रहे हैं जो और भी नवीन समस्याओं को जन्म दे रहे हैं। कुल मिलाकर कृषि कार्य भी कालगणना से जुड़ा हुआ मामला है। भारतीयों ने मासों का नाम यूरोपीयों की तरह मनमाने ढंग से नहीं रखा हालाँकि वेदों तथा उनके ब्राह्मणों में 12 मासों के नाम दिए गए थे। परंतु हमारे ज्योतिषाचार्यों ने उनसे संतोष नहीं किया। वैदिक नामों में भी एक सार्थक मिलती है। उदाहरण के लिए मधु नामक मास में ही वसंत ऋतु होती है। जानते हैं कि वसंत ऋतु का मादकता से कितना संबंध है। इसी प्रकार अन्या नाम भी सार्थक हैं। परंतु बाद में इन मासों का नाम उन नक्षत्रों के नाम रखा गया, जिनसे इनका प्रारंभ होता है। चित्रा नक्षत्र में प्रारंभ होने वाले मास का नाम चैत्र, विशाखा नक्षत्र में प्रारंभ होने वाले मास का नाम वैशाख, क्रम में सभी मासों के नाम निर्धारित किए गए। किस मास में कितनी तिथियाँ होंगी, यह चंद्रमा और सूर्य की चाल से निर्धारित किया गया और आज किया जाता है, मनमाने ढंग से नहीं। आज यदि कोई जानना चाहे कि फरवरी मास में 28 दिन ही क्यों तो इसका कोई वैज्ञानिक उत्तर किसी के पास नहीं है परंतु किसी संवत्सर के चैत्र मास, कितनी तिथियाँ हैं और क्यों हैं, इसका हरेक पंचांग के जानकार के पास है। इस क्रम को आगे बढ़ाते भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने प्रत्येक अहोरात्र को 24 होराओं में बांटा और हरेक का नामकरण भी किया। दिन के पहले होरा के नाम पर उस दिन का नाम किया गया। इस प्रकार सात दिनों के नाम रखे गए। इन्हीं नामों के आधार पर यूरोप में भी सातों दिनों के नाम रखे गए।
1 चतुर्युग = 43,20,000 वर्ष (10 कलि इसे ही धर्म भी कहा है।) दशलक्षणयुक्त होने के कारण धर्म दश संख्या का भी द्योतक है। इसीलिए सूर्यसिद्धान्त में कहा गया है कि कृत्या सत्युग में धर्म के चार पाद होते हैं, त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलि में केवल एक।
71.42857143 चतुर्युग (7 43,20,000)= 1 मन्वन्तर (30,85,71,428.5776 वर्ष)
14 मन्वन्तर (7 30.85.71,428.5776) = 1 कल्प अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस
(4,32,00,00,000 वर्ष)
ब्रह्मा के सौ वर्ष = दो परार्ध (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष)
(अर्थात 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष) की एक संपूर्ण प्रक्रिया होती है। ब्रह्मा के इस सौ वर्ष की आयु को दो परार्धों में बाँटा गया है। इसमें से वर्तमान ब्रह्मांड का पहला परार्ध बीत चुका है। भारतीय पंचांग में मासों, सप्ताहों और दिनों का निर्धारण एक वैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत किया गया है, ग्रिगोरियन कैलेंडर की तरह किसी मनमाने तरीके से नहीं। सर्वप्रथम वेदों में ही बारह मासों के नाम आते हैं। यानी भारतीय परंपरा के अनुसार संवत्सर का बारह मासों में विभाजन मानवी कार्य नहीं है। यह एक प्रकार से पूर्वनिर्धारित नियम है कि पृथ्वी के सूर्य की ओर लगा गए एक चक्र को कुल बारह भागों में ही बाँटा जाएगा। इसके लिए वेदों में दो स्थानों पर निर्देश प्राप्त होते हैं। भारतीय ज्योतिषियों ने इन मंत्रों के आधार पर ही गणनाएं कीं और उन्हीं गणनाओं को आज का कथित वैज्ञानिक विश्व भी स्वीकार करता है।