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21वीं सदी की हिंदी गजलों में ग्राम्य विमर्श

गजल फारसी से होते हुए हिंदी और उर्दू में आयी साहित्य की विधा है। गजल जैसी काव्य विधा को फारसी से हिंदी में लाकर अमीर खुसरो वास्तव में साहित्य की गंगा-जमुनी संस्कृति के पुरोधा बन गए। 13वीं शती में खुसरो के द्वारा हिंदुस्थानी जमीन में गजल का बोया गया बीज आज भाषा के संकुचित गलियारों से निकल अपना विस्तार करते हुए अपने रस के जादू से विश्व को आनंदित कर रहा है। हिंदुस्थान ने जिस भाषिक अलगाव के जख्मों को सदियों से सहा है, उस पर मरहम का काम गजल कर रही हैं।

हरिश्चंद्र शर्मा

एक जमाने में प्रेम के अनन्य भावों तक सीमित गजल का संसार आज बहूरंगी होकर नानाविध विषय एवं इन विषयों की गहनता को नापता हुआ आगे बढ़ रहा है। हिंदी के गजल संसार में प्रेम पथ की करालता से आजादी के पश्चात मोहभंग की स्थिति तक और वर्तमान की देश दशा का क्रूर साक्षात्कार, आम आदमी के हक्क- अधिकारों की पैरवी में गूंजती आवाजों को स्थान मिला है। व्यक्ति मन के नाना भावों के साथ न केवल हर्ष-अवसादि बल्कि समाज का यथार्थ चित्रण बड़ी बेबाकी के साथ गजलों में अवतीर्ण हुआ है। वर्तमान युग की गजलों में प्रेमी मन की थाह के साथ इस युग के सर्वसामान्य, सर्वहारा वर्ग की व्यथा, दुख-दर्द का गहराई के साथ वर्णन हुआ है। उदाहरण के रूप में हम दुष्यंतकुमार की गजलों को देख सकते है, जिसमें हम र्निभीक, बेलैंस और व्यवस्था के विरूद्ध उठती उंची आवाज को देख चुके है। दुष्यंतकुमार की साये में धूप गजल संग्रह की 52 गजलें जहां एक ओर आम आदमी की भावनाओं को अभिव्यक्त करती है, वहीं शासन-व्यवस्था की विसंगतियोंविदु्र पताओं पर खुलकर प्रहार करते हुए एक साफसुथ् ारी, समन्यायी, सामाजिक व्यवस्था की मांग करती है। विधा के आधार पर किए गए हिंदी साहित्य के वर्गीकरण में पद्य के अंतर्गत अपने बदलते विषय संसार एवं शैली के कारण हिंदी कविता अक्सर और अधिक चर्चा के केंद्र में रही है।

जिसके कारण हिंदी कविता का संसार समीक्षा, आलोचना का अधिकाधिक अधिकारी बनता गया। जब कि हिंदी कविता की तुलना में हिंदी गजलें उचित आलोचकों के अभाव में साहित्य के हाशिए पर ही पाई गई। आलोचकों के इसी रवैये के बारे में दैनिक पत्र जनसत्ता ने भी अपने 5 नवंबर 2018 के स्तंभ लेखन में साहित्य : हिंदी गजल और आलोचकीय बेरूखी नाम से लेखन कर इस ओछी मानसिकता की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया। हिंदी साहित्य के विकास में गजलों के योगदान और स्थान पर त्रिलोचन शास्त्री ने सटीकता से अपना मत देते हुए कहा था – हिंदी गजल की अभी कोई पहचान बन नहीं पाई है। हिंदी की गजलों की स्थिति देख वे हिंदी गजलों को अपने प्रारंभिक काल का

मानते थे।

काव्यविधा के रूप में हिंदी गजल के अहमियत पर चंद्रसेन विराट ने कहा था – आज के यांत्रिकी जीवन में जो कुछ रसतत्व शेष रह गया है, उसकी पिपासा शांत करने के लिए गीत गजल ही आज की वह काव्य विधाएं है, जो सबसे अधिक लिखी-पढ़ी जा रही है। 2 बावजूद इन सबके हिंदी गजल विधा अपने लक्ष्य की ओर अग्रेसित है। जिसके कारण 21 वीं शताब्दी की हिंदी गजलों का जिक्र करते हुए हमारे सामने कई गजलकारों के नाम उम्मीद के साथ उभरते है। जिनमें ज्ञान प्रकाश विवेक के गु़μतगू अवाम से है, आंखो में आसमान, धूप के हस्ताक्षर (गजल संग्रह); जहीर कुरैशी के भीड़ में सबसे अलग, समंदर ब्याहने आया नहीं है, चांदनी का दु:ख, पेड़ तन कर भी नहीं टूटा (गजल संग्रह); सुल्तान अहमद के नदी की चीख, खामोशियों में बन्द ज्वालामुखी (गजल-संग्रह); अशोक अंजुम की मेरी प्रिय गजलें, मुस्कानें हैं ऊपर-ऊपर, अशोक अंजुम की प्रतिनिधि गजलें, तुम्हारे लिये गजल, जाल के अन्दर जाल मियां; आलोक श्रीवास्तव के आमीन (गजल संग्रह); इन्दु श्रीवास्तव के कहिए दीवान (गजल संग्रह); नचिकेता के आइना दरका हुआ (गजल संग्रह); देवेन्द्र आर्य के किताब के बाहर, ख्वाब-ख्वाब खामोशी, आग बीनती औरतें, उमस (गजल संग्रह); दरवेश भारती के गजल संग्रह जिनमें रौशनी का सफर, अहसास की लौ; द्विजेन्द्र द्विज के जन-गण-मन (गजल संग्रह); दीप्ति मिश्र के है तो है (गजल संग्रह); विनय मिश्र के सच और है (गजल संग्रह) इसके अलावा लक्ष्मण दूबे, सविता चढ्ढा, सुल्तान अहमद, नूर मुहम्मद नूर, मुन्नवर राणा, मधुवेश, देवमणि पांडेय, डॉ. उर्मिलेश और कई गजलकारों के नाम शुमार किए जा सकते है। 21 वी सदी की कई गजलें आम आदमी की जिंदगी की दास्तान है, जो उसी आम इन्सान की भूख, उस पर टूटनेवाली महंगाई की मार का जीवंत चित्रण करती है, तो कभी समता-समानता का चोला ओढे लोकतंत्र की पोल खोलती है, कभी सरेआम होने वाली धोखाधड़ी, व्यवस्था के शोषण – भ्रष्टाचार, वर्गभेद से उपजी अमानवीयता, यांत्रिकीकरण से उत्पन्न अजनबीपन, आपसी द्वेष और मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन की कहानियां सुनाती है। प्रस्तुत शोधालेख में हिंदी गजलों में चित्रित ग्राम्य विमर्श पर प्रकाश डालने का प्रयास हुआ है। आधुनिक सदी का गजलकार समाज के हर घटना क्रम को न सिर्फ आँख खोलकर देखता है, बल्कि उसके पीछे की वास्तविकता समझने की कोशिश करता है। राजनैतिक गलियारों में राजनीति का हथियार बनते आए गांव किस तरह प्रगति कर रहे है, यह डी.एम. मिश्र की गजल गांवों का उत्थान देखकर आया हूँं द्वारा देखा जा सकता है, जहां गांवों के भ्रष्ट मुखिया-प्रधान जन विकास की जगह अपनी जिंदगी सजाने-संवारने में लगे है। मनरेगा की मजूरी को हड़पकर नहरों का अस्तित्व केवल कागज पर रखा जाता है। महिलाओं को सत्ता में मिले आरक्षण की असलियत भी गजलकार खोलता है। जहां – लछमिनिया थी चुनी गई परधान मगर उसका पती प्रधान देखकर आया हूँ। बंगले के अंदर में जाने क्या होगा अभी तो केवल लॉन देखकर आया हूँ।

देश की सदन में गांवों के विकास को लेकर हर रोज चर्चा होती है, पर इस भ्रष्ट व्यवस्था में भ्रष्ट हो चुकी देश की महानता गजलकार की आंखों से छूटी नहीं। आधुनिकीकरण की इस तेज आंधी ने जहां हमें कई नई चीजों से वाकिफ किया वहीं आंख खोलकर देखें तो हमसे बहुत कुछ छीन लिया है। गांवों का रंग-ढंग बदलकर वहां शहरों का फैशन अपनी जगह बना रहा है। गांवों की संस्कृति, लोकजीवन, रीति-रिवाज, परंपराएं इतना ही नहीं वहां की मिट्टी में छिपा प्रकृति का सुनहरा रूप भी लुप्त होता जा रहा है।

सावन की पुरवइया गायब ..।

पोखर, ताल, तलइया गायब…!

कट गए सारे पेड़ गाँव के..

कोयल और गौरइया गायब…!

आधुनिकीकरण ने गांवों के कच्चे घरों को तो पक्का बना दिया, पर घर की आत्मा का हिस्सा, घरों के आंगन ही गायब हो गए है। सोहर, कजरी, फाग जैसे उत्सव और उसमें होने वाले बिरहा नाच भी गायब हो गए। कभी लोगों से घिरी घर की चौपाई अब अपनत्व के अभाव गुमसुम बैठी है, उस पर बैठकर रह याद किए जानेवाले दोहा, सवैया के गीत गायब हो चुके है। एटीएम मशीन ने हमें हर जगह पर पैसा उपलब्ध कराया, पर अर्थज्ञान सिखाने वाले बुजुर्ग घर में न होने के कारण उनके बटुए के पैसा, आना, पइया गायब हो गए। जहां कभी दरवाजे पर बैल, भैंस और गाएं बंधी होती थी, जिनका होना व्यक्ति की सधनता का द्योतक था, आज उनकी जगह पर ऐश- आराम का प्रतीक बनकर कार खड़ी हो चुकी है। सुबह के चना-चबैना, लइया का स्थान चाय की चुस्की ने लिया। पर हद तो तब होती है, जब –

भाभी देख रही हैं रस्ता….

शहर गए थे, भइया गायब…।

आधुनिक हिंदी गजलकारों में देवमणि पांडेय का अपना एक स्थान है। उनकी गजलों में एक और जहां महानगरों के प्रति प्रेम छलकता है, वहीं दूसरी ओर गांव के आंचल से दूरी की बेचैनी व्यथा बन टपकती है। आज भी भारत को गांवों का देश कहा जाता है। पर वास्तविकता यह है कि शहरीकरण के चलते गांवों के नक्शे केवल कागजों तक ही सीमित है। बहुत कुछ पाने की आशा में नौजवान गांवों को छोड़ कभी न लौटने के लिए शहरों की ओर मुड़ रहे है। युवाओं के साथ गांव की रौनक, उजाला भी लुप्त हो गया। गांव की गलियां वीरान हो गई। बच्चों का बचपन छीन गया और चंद पैसों के लिए छोटे बच्चे मजदूर बन गए। पर गांव के बिछौने उसी आत्मीयता से अपनों की राह देख रहे है। कभी कहकहों से गूंजती शाम की चौपालें से भरे गांव आज सिर्फ यादों में बचे हुए है।

हाल इक-दूजे का कोई पूछने वाला नहीं,

क्या पता अगले बरस क्या हाल होगा गांव का।

सोच में डूबे हुए है गांव के बूढे दरख्त,

वाकई क्या लूट गया है कुल असासा गांव का।

महानगरों की बाहरी चमक-धमक को देखकर उसमें खोनेवाला आज का इन्सान अपनी वास्तविकता को, इन्सानियत को भूलता जा रहा है। इस नई दुनिया के रंग में रंगकर हम दोस्ती-यारी को भूल गए। उन्नति की खोज में हर किसी की राह कुछ ऐसी अलग हुई कि एक दूसरे का साथ निभाना भी हम भूल गए। सूचना-प्रोद्योगिकी की क्रांती वाले इस युग ने बच्चों को स्मार्ट बनाने के लिए उनके हाथों में मोबाइल तो दिए, पर उनकी मासूमियत को जिंदा रखने, प्रकृति से उन्हें जोड़ने, बहते पानी में कागज की नाव को चलाने जैसी कला को भूला दिया।

धन-दौलत ने हमको इतने खुशियों

के सामान दिए,

खेत-फसल, कोयल-गोरैया गाँव

सुहाना भूल गए।

हँसते-गाते, धूम मचाते जिनमें बचपन

गुजरा था,

शहर में आकर उन गलियों में

आना-जाना भूल गए।

आजादी के 70 साल बाद भी ग्रामों की दशा में विशेष परिवर्तन नहीं आया। अपने श्रम से सबका पेट भरने वाले इस देश के कई किसान आज आसमानी और सुल्तानी ताकतों के अधीन है। अकाल तो मानो उसके भाग्य का अंग बन चुका है। ऐसे में देवमणि पांड़ेय की सूखा पीड़ित किसान पर लिखी यह गजल किसानों के संत्रास को प्रत्यक्ष करती है। जब बादल नहीं बरसते, तब मिट्टी के खेत उजड़ चट्टानों में परिवर्तित होते है। मौसम के बदलाव के साथ ही किसान दहशत में आ जाता है, उसके खून-पसीने से खेत-खलिहानों में उपजी उसकी फसलें उसी के आंखों के सामने दम तोड़ती है। अपनी आंखों से खेती की यह बरबादी, किसान के भविष्य को ओर काली स्याह से रंग देती है। सभी ओर से निराश थका-हारा यह किसान अन्य किसी आशा को न पाकर रस्सी पर झूल कर जीवन का अंत कर देता है। किसी एक किसान का यूं फांसी पर झूलना अन्य मजदूर-किसानों में भी खौफ को भर देता है। पर कृषकों की मौत जड़ बन चुकी हुकूमत की नींव को भी हिला नहीं पाती। जिसके कारण गांव बेजान बनते जा रहे है।

अब गाँव की आँखों में बदरंग फिजाएँ हैं,

खिलती है धनक लेकिन शहरों की दुकानों में।

क्यूँ रूठ गई कजरी, दिल जिसमें धड़कता था,

क्यूँ रँग नहीं कोई अब बिरहा की तानों में।

गांव की माताओं को समर्पित देवमणि पांड़ेय की गजल अंगनाई, दहलीज, दुआरी सामाजिकता के नाम पर गांवों की नारीओं की अनदेखी कैद को दशार्ती है। शहर के एक समारोह में गांव की एक परिचित महिला से गजलकार की जब मुलाकात हुई, तो हालचाल पूछने पर वह महिला कहती है – मां- बाप गुजर गए तो मायके से रिश्ता खत्म। बेटे परदेस बस गए। अब गांव में अकेले वह किसी तरह दिन काट रही है। यह गजल ऐसी ही नारीयों के हालचाल को दशार्ती है। जिनके लिए कभी वह दुनिया समान थी, उसी मां को बच्चें अकेला छोड़ देते है। एक सारी पर हर जाड़ा काटनेवाली इस मां को दुनिया बेचारी कहती है।

सात समन्दर आँख में फिर भी

सूखी है मन की फुलवारी

किसे पड़़ी है जो ये देखे

कैसे तुमने उम्र गुजारी

दुख से रिश्ता जोड़ चुकी यह मां तनहाई में सुख-दुख को भले ही जीवन का चक्र मान ले, किंतु गजलकार चाहता है कि वह मां दुनियादारी को सीख ले, क्योंकि उसके चाहने पर ही उसकी तकदीर बदलेंगी अन्यथा नहीं। गांवों को अभाव की धरती मान कर महानगरों की छांव में आने वाले हर मनुष्य को महानगर जिंदा रखता है, पर गांवों के समान अपनत्व नहीं दे पाता। अत: महानगर भले ही व्यक्ति को बर्बाद न करें, पर वे उसे मन से आबाद भी नहीं बनाते। सब कुछ होते हुए भी व्यक्ति के अंदर बेचैनी, बेहाली बनी रहती है। गांवों का खुला पर महानगर में आकर व्यक्ति को समय की जंजीरों से बांध देता है।

रहता हूँ, मगर शहर में आबाद नहीं हूँ

बेचौन हूँ, बेहाल हूँ, बर्बाद नहीं हूँ

जंजीर कहीं कोई दिखाई नहीं देती

उड़ने के लिए फिर भी मैं आजाद नहीं हूँ

औद्योगिकीकरण ने बड़ी रμतार से इन्सान की दुनिया को उजाड़ना शुरू किया। कल-कारखानों के धुएं ने आसमान को गायब कर दिया। परिंदे के आशियां जिस पर बसे थे, वे पेड़ गायब हो रहे है। ठिक वैसे ही रोजगार की तलाश में गांव छोड़कर बाहर पड़नेवाला युवा वर्ग जब तक वापस लौटता है, तब तक गांव में बसा उसका संसार उजड़ जाता है। शहर ऐसे जंगलों में तब्दील होते जा रहे है, जहां सिर्फ शोर है, जो सच को दबाये जा रहा है। ऐसे में भी प्रेम जैसी भावना पर यकीन करते हुए सुल्तान अहमद कहते है-

डरके तन्हाइयों से सोचोगे, लोग रहने

लगे कहाँ गायब।

प्यार गर प्यार है तो उभरेगा, लाख

उसके करो निशाँ गायब।

गांव छोड़कर अपने आप को बडे गर्व से नगरीय- महानगरीय कहने वाले यह भूल जाते है कि गांव से आनेवाले दो-चार दानों के दम पर ही उनकी जीवन की डोर है। जिस उन्नति को पाने उन्होंने गांव छोड़ा, उसी गांव के सुनसान घर में तनहाई में जीती बूढ़ी मां शहर बसे अपनों के लिए हमेशा दुआओं के खजाने भेजती रहती है। गांव के छोटे लोगों के न सिर्फ आंगन बल्कि मन भी बडा होता है, जबकि अपने आप को बड़ा कहने वाले शहरवालों के आशियाने और मन भी छोटे होते है। गांव छोड़ने की गिला मन में लिए तब गजलकार कहता है –

गांव के कच्चे घरों में छोड़ कर सब्रों-सुकूं

आ गए हम देखिए रोटी कमाने शहर में

गांव के शाम-ओ- सहर टांगे है इक दीवार पर

बस यही दो चार है मंजर सुहाने शहर में

कभी भारतीय संस्कृति का उज्वलतम रूप जिन गांवों में देखा जाता था, बदलते समय ने उन्हीं गांवों का अक्स बदलकर रख दिया। बहुत कुछ पाने की लालसा से गांवों से शहरों की ओर पलायन तेजी से होने लगा। उपर से भ्रष्ट सरकारी योजना ने संविधान प्रदत्त अधिकारों पर जब डाके डालने शुरू किए, तो कभी चैन की बंसी बजाने वाले गांव धीरे-धीरे नक्सलवाद, आतंकवाद की छाया में, बंदूक, बारूद के बादलों में सहमें हुए जिंदगी काटने लगे। बल्ली सिंह चीमा की गजल की निम्न पंक्तियां गांव की इसी वास्तविकता की ओर इशारा करती है। गांव मेरा आजकल दहशतजादा है दोस्तो इसकी किस्मत में न जाने क्या लिखा है दोस्तो इस तरह 21 वीं सदी की गजलों में ग्राम्य विमर्श के विविध रूप, विविध विषयों के साथ देखे जा सकते है। यह गजलें गांवों के बारे में आम पाठकों की उस काल्पनिक दुनिया पर छांई धुंध को हटाकर ग्रामिण परिवेश की वास्तविकता को सामने लाने में सहायता करती है।

सारांश-21 वीं सदी की ग्राम्य विमर्श पर आधारित गजलों में स्वाभाविकता झलकती है। यह गजले किसी विशिष्ट वर्ग के मखमलीपन, शब औ शराब के किस्सों का हिस्सा नहीं। ग्रामीण परिवेश की स्थिति- गति का यथार्थवादी वर्णन करते समय इनमें वर्ण्यवि षयों की विविधता दिखाई देती है, जिसके माध्यम से गजलकार कभी पाठक को नया संदेश देता है, तो कभी उसे हौसला बंधाता है, तो कभी उसकी आंखों अंजन भर देता है। जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतू इन गजलों का विधान हुआ, उसके भावसंप्रेषण में कोई रूकावट नहीं आती। शब्दों के आडंबर से दूर ग्राम्य विमर्श की यह गजलें सहज बोधगम्य बन पडी है। एक ओर यह समाज, व्यवस्था की विसंगतियोंविदू्र पताओं पर व्यंग्य के तीखे बाण चलाती है, वहीं इनकी विचारों की प्रौढ़ता इसे सहज पाठकों के दिलों में उतारती है। कविता के समान गजल विधा भले ही उस मुकाम को हासिल नहीं कर पाई है, फिर भी उसमें काव्य के समान सौंदर्यतत्व को पकड़ा गया है। कभी औरतों से प्यार भरी बातचीत तक सीमित अर्थ लेकर चलने वाली गजल आज जीवनतत्वों से लबालब भरी साहित्य विधा सिद्ध हो रही है। जिसे देख कह सकते है कि नवाबों-बादशाहों के दरबारों से निकलकर जनाश्रय पानेवाली गजल सामाजिक यथार्थ का दर्पन बन रही है।