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बिना साक्ष्यों के कीचड़ उछालना भी पत्रकारिता हो गई

क्या अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में कोई पत्रकार पाकिस्तान की आईएसआई जैसी कुख्यात भारत विरोधी खुफिया एजेंसी के पक्ष में लिख सकता है? क्या वह संसद पर हमला करने वाले आतंकियों के पक्ष में खड़ा हो सकता है? भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारेबाजों के हित में लिखे तो भी वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही मानी जाएगी? आपको मालूम ही है कि स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया को 6 जून को ट्विटर पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जुड़ा एक वीडियो कथित तौर पर शेयर किया था। वीडियो की सत्यता अभी तक प्रमाणित नहीं है। इसके बाद ही शनिवार को उनके दिल्ली के मंडावली स्थित आवास से दोपहर 12:30 बजे यूपी पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर लखनऊ ले गई थी। लखनऊ के हजरतगंज थाने में दर्ज एफआईआर में प्रशांत पर आईटी एक्ट की धारा 66 और मानहानि की धारा (आईपीसी 500) लगाई गई है। उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा गिरफ्तार पत्रकार प्रशांत कनौजिया की टाइमलाइन देखिए। आपको देखकर समझ आ जाएगा कि यकीनन इनकी एक नहीं अनेक ट्वीटें आपत्तिजनक और उत्तेजक हैं। उन्हें गिरफ्तार किया गया तो फिर से कहा जाने लगा कि लोकतंत्र और प्रेस की आजादी के हित में उसकी गिरफ्तारी गलत है। मतलब पत्रकार को भी अब उच्चतम न्यायलय ने अपनी तरह ही विशेष नागरिक का दर्जा दे दिया है। क्षमा कीजिए, पर यह भी कहना पड़ रहा है कि प्रशांत कनौजिया के हक में एडिटर्स गिल्ड का सामने आना मेरे समझ से परे है। एडिटर्स गिल्ड की प्रतिष्ठा इससे गिरी है। गिल्ड ने बिना मामले के तथ्यों की जांच-पड़ताल किए ही प्रशांत कनौजिया और नोएडा में स्थित टीवी चैनल नेशनल लाइव के संपादक और हेड अनुज शुक्ला और इशिता सिंह की उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा की गई गिरफ्तारी की कड़ी निंदा की है। एडिटर्स गिल्ड का कहना है, ह्यपुलिस की कार्रवाई सख्त और कानून का मनमाना दुरुपयोग है। गिल्ड इसे प्रेस को डराने, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के प्रयास के रूप में देखता है। ह्ण एडिटर्स गिल्ड में देश के एक से बढ़कर एक सम्मानित पत्रकार हैं। उन्हें सोचना चाहिए था कि क्या प्रशांत को ट्विटर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ ह्यसंबंधह्ण बनाने का दावा करने वाली महिला का वीडियो पोस्ट करना चाहिए था? क्या प्रशांत कनौजिया को पता नहीं है कि अधिकार और कर्तव्य दोनों साथ-साथ चलते हैं? कनौजिया के अलावा नेशन लाइव के हेड और संपादक पर उस विडियो को प्रसारित करने का आरोप है। कहीं न कहीं यह लग रहा है कि मीडिया बिरादरी ने अपने साथी को बचाने के लिए तर्क से ज्यादा भावुकता का सहारा लिया। मैं खुद मूलत: और अंतत: पत्रकार हूं। 1966 से यही कर रहा हूँ। मैं पत्रकारों की नौकरी में ठेका प्रथा का विरोधी रहा हूं और उनके हक में खड़ा भी होता रहा हूं।

लेकिन, पत्रकारों के इस मौलिक अधिकार पर तो सब चुप्पी साधे रहते हैं। पर यहां पर मामला अलग है। इसे अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर देखना सरासर अनुचित माना जाएगा। राजधानी में कुछ मीडिया कर्मी और पत्रकार संगठन एक खास एजेंडे के तहत ही प्रदर्शन करते हैं। ये तब चुप क्यों थे जब बिहार और झारखंड में पत्रकारों की हत्या हो रही थी? पिछले कुछ समय से मीडिया संस्थानों में कर्मियों की छंटाई से लेकर वक्त पर पगार के न मिलने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। जो संस्थान घाटे में चल रहे हैं उनकी तो कर्मचारियों को कम करना मजबूरी मानी जा सकती है। पर अच्छी खासी कमाई करने वाले भी यही कर रहे हैं। पर इन सवालों पर कोई विरोध प्रदर्शन नहीं होता? इस बीच, भले ही कनौजिया के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट क फैसला आ गया है, पर उसने जो कुछ किया क्या वह सही था? इस प्रश्न पर तो देश की जनता सोचती ही रहेगी। पत्रकारिता को थोड़ा-बहुत भी जानने वाले इंसान जानते हैं कि तहकीकात और साक्ष्यों के बिना, दुर्भावना से किसी के निजी जीवन पर कीचड़ उछालना एक घृणित अपराध है। हरेक नवोदित पत्रकार को उसके वरिष्ठ साथी और सहयोगी सलाह देते ही रहते हैं कि वह किसी के खिलाफ लिखने से पहले साक्ष्यों की जांच कर ले। बिना साक्ष्यों के किसी पर कीचड़ उछालना कब से पत्रकारिता का हिस्सा हो गया? कोई बताए तो सही? आपको याद ही है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी अपने राजनीतिक विरोधियों पर आदतन मन-गंढ़त आरोपों को लगाते रहे हैं। उन पर जब मानहानि के मामले बढ़े और उन्हें यह लगने लगा कि अब उन्हें जेल की हवा खानी पड़ सकती है, तो वे कपिल सिब्बल, अवतार सिंह भड़ाना, अरुण जेटली वगैरह से बिना शर्त माफी मांगने लगे। प्रशांत कनौजिया के मामले ने बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बड़ा तो सवाल तो यही है कि क्या पत्रकार कोई विशेष नागरिक है? क्या उसे अतिरिक्त अधिकार प्राप्त हैं? अगर नहीं तो फिर पत्रकारों को भविषय में सोच समझकर ही किसी मसले को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ना होगा। ?