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पिंजरे वाली मुनिया

सपने पूरे करने की बारी आई तो वह क्यों छटपटा उठी। पति के खिलाफ बेटी के सपनों को पूरा करती महिला की कहानी उषा रानी की कलम से।

तरंग अपने नाम के अनुरूप शोख, चंचल और मस्त थी। लेकिन ऊंचे घराने में शादी क्या हुई वह तो पिंजरे वाली मुनिया बन कर रह गई। उस की चंचलता, सपने, इच्छाएं सभी बिखर कर रह गए। लेकिन जब बेटी के सपने पूरे करने की बारी आई तो वह क्यों छटपटा उठी। पति के खिलाफ बेटी केसपनों को पूरा करती महिला की कहानी उषा रानी की कलम से। मरा हुआ मन भी कभीकभी कुलबुलाने लगता है। आखिर मन ही तो है, सो पति के आने पर उन्होंने हिम्मत कर ही डाली।आज चलिए मन मंदिर में चल कर परिणीता देख आते हैं। नई ऐक्ट्रेस का लाजवाब काम है। अच्छी रीमेक है। मैं ने टिकट मंगवा लिया है। टिकट मंगवा लिया? यह तुम्हारा अच्छाखासा ठहरा हुआ दिमाग अचानक छलांगें क्यों लगाने लगता है? पता है न कि पिक्चर हाल की भीड़भाड़ में मेरा दम घुटता है। मंगा लो सीडी, देख लो। इतना बड़ा प्लाज्मा स्क्रीन वाला टीवी किस लिए लिया है? हाल के परदे से कम है क्या? तुम भी न तरंग, अपने मिडिल क्लास टेस्ट से ऊपर ही नहीं उठ पातीं। वह चुप हो गईं। पति से बहस करना, उन की किसी बात को काटना तो उन्होंने सीखा ही नहीं है। बात चाहे कितनी भी कष्टकारी हो, वह चुप ही लगा जाती हैं। वैसे यह भी सही है कि जितनी सुखसुविधा, आराम का, मनोरंजन का हर साधन यहां उपलब्ध है, इस की तो वह कभी कल्पना कर ही नहीं सकती थीं। वह स्वयं से कई बार पूछती हैं कि इतना सबकुछ पा कर भी वह प्रसन्न क्यों नहीं? तब उन का अंतर्मन चीत्कार कर उठता है। तरंग, क्या जीवन जीने के लिए, खुश रहने के लिए शारीरिक सुख- सुविधाएं ही पर्याप्त हैं? क्या इनसान केवल एक शरीर है? तो फिर मनुष्य और पशुपक्षी में क्या अंतर हुआ? तुम तो स्वच्छंद विचरती चिड़िया से भी बदतर हो। पिंजरे वाली मुनिया में और तुम में अंतर क्या है? तुम भी तो अपना मुंह तभी खोलती हो जब कहा जाए। ठीक वही बोलती हो जो सिखाया गया हो, न एक शब्द कम, न एक शब्द अधिक। और अपने अंतर्मन की इस आवाज को सुन कर उन का मन हाहाकार कर उठा। लेकिन घर आने वाला हर मेहमान, रिश्तेदार उन की तारीफ करते नहीं थकता कि तरंग अपनी बातों में शहद घोल देती हैं, सब का मन मोह लेती हैं। वह सोचने लगीं कि सब का मन वह मोह लेती है, तो कोई कभी उन का मन मोहने की कोशिश क्यों नहीं करता? एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार की असाधारण लड़की। तीखे नाकनक्श, गोरा रंग, लंबा छरहरा शरीर। पढ़ने में जहीन, क्लास में हमेशा फर्स्ट। कभी पापा की सीमित आय में उसे सेंध नहीं लगानी पड़ी। फेलोशिप, स्कालरशिप, बुकग्रांट, बचपन से खुशमिजाज, हमेशा गुनगुनाती, लहराती, बलखाती लड़की को दादी कहतीं, यह लड़की आखिर है क्या? कभी इसे रोते नहीं देखा, चोट लग जाए तो भी खिलखिला कर हंसना, दूसरों को हंसाना। इस का नाम तो तरंग होना चाहिए। और पापा ने सचमुच उन का नाम विजया से बदल कर तरंग कर दिया। वह ऐसी ही थीं। पूरी गंभीरता से पढ़ाई करते हुए गाने गुनगुनाना। चलतीं तो लगता दौड़ रही हैं, सीढ़ियां उतरतीं तो लगता छलांगें लगा रही हैं। स्कूलकालिज में सब कहते, तुम्हारा नाम बड़ा सोच कर रखा गया है। हमेशा तुम तरंग में ही रहती हो। और उस दिन उन की ननद कह रही थीं, समझ में नहीं आता भाभी, आप का नाम आप के स्वभाव से एकदम उलटा क्यों रखा अंकलआंटी ने? आप इतनी शांत, दबीदबी और नाम तरंग। क्या कहतीं वह? कैसे कहतीं कि यहां, इस घर में आ कर तरंग ने हिलोरें लेना बंद कर दिया है। बी।काम। के पहले साल में वह बहुत बीमार हो गई थीं। सब के मुंह यह सोच कर लटक गए थे कि तरंग का क्या हाल होगा, लेकिन वह सामान्य थीं बल्कि उन्होंने पापा को धीरज बंधाया, पापा, क्या हो गया? यह सब तो चलता रहता है। मेरे पास 2 वर्ष हैं अभी तो, आप देखिएगा, गोल्ड मेडल मैं ही लूंगी। पापा आत्मविश्वास से ओतप्रोत उस नन्हे से चेहरे को निहारते ही रह गए थे। उन की बेटी थी ही अलग। उन्हें गर्व था उन पर। ड्रामा, डांस सब में आगे और पढ़ाई तो उन की मिल्कीयत, कालिज की शान थीं, प्रिंसिपल की जान थीं वह। आईआईएम कोलकाता के सालाना जलसे में स्टेज पर उर्वशी बनी तरंग सीधी सिद्धांत के दिल में उतर गईं। सपने पूरे करने की बारी आई तो वह क्यों छटपटा उठी। पति के खिलाफ बेटी के सपनों को पूरा करती महिला की कहानी उषा रानी की कलम से। पिंजरे वाली मुनिया सारा अतापता ले कर सिद्धांत घर लौटे और रट लगा दी कि जीवनसंगिनी बनाएंगे तो उसी को। मां ने समझाया, देख बेटा, इतने साधारण परिवार की लड़की भला हमारे ऊंचे खानदान में कहां निभेगी? इन लोगों में ठहराव नहीं होता। जवाब जीभ पर था। सब हो जाता है मां। आएगी तो हमारे तौरतरीकों में रम जाएगी। तेज लड़की है, बुद्धिमती है, सब सीख जाएगी। यह भी एक चिंता की ही बात है बेटा। इतनी पढ़ीलिखी, इतनी लायक है तो महत्त्वाकांक्षिणी भी होगी। आगे बढ़ने की, कुछ करने की ललक होगी। कहां टिक पाएगी हमारे घर में? पापा ने दबाव डालना चाहा। पापा, आप भीङ्घजब उसे घर बैठे सारा कुछ मिलेगा, हर सुखसुविधा उस के कदमों में होगी तो वह रानीमहारानी की गद्दी छोड़ कर भला चेरी बनने बाहर क्यों जाएगी? हर तर्क का जवाब हाजिर कर के सिद्धांत ने सब का मुंह ही बंद नहीं किया, उन्हें समझा भी दिया। तरंग ब्याह कर आ गईं। तरंग के घर वालों की तो जैसे लाटरी खुल गई। भला कभी सपने में सोच सकते थे, बेटी के लिए ऐसा घर जुटाना तो दूर की बात थी। घर बैठे मांग कर ले गए लड़की। तरंग भी बहुत खुश थी। सिद्धांत कद में उस के बराबर और जरा गोलमटोल हैं तो क्या हुआ। इतने बड़े बिजनेस हाउस की वह अब मालकिन बन गई थीं। मेहमानों के जाने, लोगों का आतिथ्य ग्रहण करने और मधुयामिनी से लौटते 2 महीने निकल गए। ऐसे खुशगवार दिन तो इसी तरह पंख लगा कर उड़ते हैं।

माउंट टिटलस पर बर्फ के गोले एकदूसरे पर मारतेमरवाते स्विट्जरलैंड की सैर, तो कभी रोशनी से जगमगाते सुनहरे एफिल टावर को निहारता पेरिस का कू्रज। वेनिस के जलपथ में अठखेलियां करते वे दोनों कब एकदूसरे के दिलों में ही नहीं शरीर में भी समा गए, पता ही नहीं चला। वे दो बदन एक जान बन चुके थे। ऐसे में कोई छोटीमोटी बात चुभी भी तो तरंग ने उसे गुलाब का कांटा समझ कर झटक दिया। उस दिन पेरिस का मशहूर लीडो शो देखने के लिए तरंग अपनी वह सुनहरी बेल वाली काली साड़ी मैचिंग ज्वेलरी के साथ पहन कर इठलाती निकली तो सिद्धांत ने एकदम टोक दिया, बदलो जा कर, यह क्या पहन लिया है? वह आसमानी रंग वाली शिफान पहनो, मोती वाले सेट के साथ। चुपचाप उन्होंने अपने वस्त्र बदल तो लिए थे पर कुछ समझ में नहीं आया कि इस में क्या बुराई थी। लेकिन उन सुनहरे पलों में वह कटुता नहीं लाना चाहती थीं। इसलिए चुप रहीं। अब उस दिन कोकाकोलाके एम।डी। के यहां जाने के लिए उन्होंने बड़े शौक से मोतियोंके बारीक झालर वाली डे्रस निकाल कर रखी थी, मोतियों के ही इटेलियन सेट के साथ। बाथरूम से बाहर निकलीं तो देखा सिद्धांत बड़े ध्यान से उस डे्रस को देख रहे थे। खुश हो कर वह बोलीं, अच्छी है न यह डे्रस? अच्छी है? मुझे तो यह समझ में नहीं आता कि तुम हमेशा यह मनहूस रंग लादने को क्यों तैयार रहती हो? सिद्धांत की आवाज में बेहद खीज थी। चुपचाप तरंग ने गुलाबी सिल्क पहन ली, लेकिन अपनी छलछलाई आंखों को छिपाने के लिए उन्हें दोबारा बाथरूम में घुसना पड़ा था। उस के बाद उन्होंने सभी काले कपड़े अपने वार्डरोब से निकाल ही दिए। कभीकभी उन्हें अपने होने का जैसे एहसास ही नहीं होता। जब उन की अपनी कोई इच्छा ही नहीं तो उन का तो पूरा का पूरा अस्तित्व ही निषेधात्मक हो गया न? कितने सपने थे आंखों में, कितनीयोजनाएं थीं मन में। विवाह के बाद तो उन योजनाओं ने और भी वृहद् रूप धर लिया था। इतने बड़े व्यवसाय का स्वामित्व तो सारी की सारी पढ़ाई को सार्थक कर देगा। पर हुआ क्या? मन में उमंग और तरंग लिए मुसकरा कर जब उन्होंने सिद्धांत से कहा था, अब बहुत हो चुकी मौजमस्ती, आफिस में मेरा केबिन तैयार करवा दीजिए। कल से ही मैं शुरू करती हूं। महीना तो काम समझने में ही लग जाएगा। सिद्धांत अवाक उन का मुंह देखने लगे। क्या हुआ? ऐसे क्या देख रहे हैं आप? तुम आफिस जाओगी? पागल हो गई हो क्या? हमारे खानदान की औरतें आफिस में? अरे, तो क्या इतनी मेहनत से अर्जित एम।बी।ए। की डिगरी बरबाद करूं घर बैठ कर? बोल क्या रहे हैं आप? वह सचमुच हैरान थीं। हां, डिगरी ली, बहुत मेहनत की, ठीक है। पढ़ीलिखी हो, घर के बच्चों को पढ़ाओ, अखबार पढ़ो, पत्रिकाएं पढ़ो, टीवी देखो, इतना बोल कर सिद्धांत उठ कर चल दिए। तरंग को काटो तो खून नहीं। मम्मीपापा की दी हुई सीख और पारिवारिक संस्कारों ने उन की जबान पर ताला जड़ दिया था। छटपटाहट में कई रातें आंखों में ही कट गईं। पर करें तो क्या करें? सोने का पिंजरा तोड़ने की तो हिम्मत है नहीं। और जैसा होता है, धीरेधीरे रमतेरमते वह उसी वातावरण की आदी हो गईं। विद्रोह का सुर तो कभी नहीं उठा था पर अब भावना भी लुप्त हो गई। दिनमहीने इसी तरह बीतते गए। 4 साल में प्यारी सी पुलक और गुड्डा सा श्रीष तनमन को लहरा गए। अधूरे जीवन में संपूर्णता आ गई। पूरा दिन बच्चों में बीतने लगा। उन का पढ़नापढ़ाना और उसी में व्यस्त तरंग को देख सिद्धांत ने भी चैन की सांस ली। वरना तरंग का मूक विद्रोह और सूनी अपलक दृष्टि को झेलना कभीकभी सिद्धांत के लिए कठिन हो जाता। वह कई बार संकल्प करती हैं कि जिस तरह उनके सपने चकनाचूर हुए, सारी कामनाएं राख हो गईं, ऐसा पुलक के साथ नहीं होने देंगी। पर विद्रोह की चिनगारी भड़कने से पहले ही राख हो जाती है। विदाई के समय दी गई मम्मी की नसीहत एकदम याद जो आ जाती है : बेटी, तू हमेशा अपनी इच्छा की मालिक रही है। अपनी तरंग में कभी किसी को कुछ नहीं समझा तू ने। पर ससुराल में संभल कर रहना। हर बात को काटना, अपनी मरजी चलाना यह सब यहीं छोड़ जा। वैसे भी वे बड़े लोग हैं, उन का रखरखाव और तरह का है। तेरी किसी भी हरकत से उन की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने पाए। जैसा वे कहें वैसा ही करना, जो वे चाहें वही चाहना, जितना वे सोचें उतना ही सोचना। और तरंग मम्मी की बात मान कर पिंजरे वाली मुनिया बन गईं। कितनी विचित्र होती हैं न इन भारतीय संस्कारी परिवारों की कन्याएं। पिता के घर से विदा होते समय हाथ से पीछे की ओर धान उछालती हुई अपनी प्रकृति, आदतें, प्रवृत्तियां सबकुछ छोड़ आती हैं। इसीलिए उन्हें दुहिता कहते हैं शायद। लेकिन एक जगह दिक्कत आ गई कि वह अपनी भावनाओं को, अपनी सोच को, ससुराली सांचे में नहीं ढाल पाईं। करतींकहतीं उन के मन की पर सोचतींमहसूसतीं उन से अलग। इसी अंतराल ने उन्हें अकसर झिंझोड़ा है, निचोड़ा है। दिनों को महीनों में और महीनों को सालों में बदलने में भला देर कब लगती है? पुलक ने 12वीं कर ली है। एकदम मां जैसी वह भी बहुत जहीन है। उस ने जे।ई।ई। की स्क्रीनिंग पार कर ली है। सिद्धांत तो उस के प्रतियोगिता में बैठने के ही पक्ष में नहीं थे, तरंग ने ही जैसेतैसे मना लिया था। अब बारी आई है मेन्स में बैठने की। पुलक ने अपने स्तर से भरपूर तैयारी की है और तरंग ने पूरी जान लगा दी है। फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स को नए सिरे से रात भर जाग कर पढ़ा है तरंग ने। बेटी कहीं अटकी और समाधान ले कर मां तैयार। सिद्धांत सब देख रहे हैं और उन के पागलपन पर हंस रहे हैं। घर के सभी लोगों ने कह दिया कि मेन्स में बैठने की कोई जरूरत नहीं। जिस दर जाना नहीं वहां का पता क्या पूछना? लेकिन पुलक ने हार नहीं मानी। उस ने पापा से लाड़ लगाया, पापा, मुझे सिर्फ जरा अपनी क्षमता मापने दीजिए। कौन सा मैं आ जाऊंगी? मैं ने तो कोचिंग वगैरह भी नहीं ली है, न पोस्टल न रेगुलर। मेरी क्लास के बच्चों ने तो 2-2 कोचिंग ली हैं। मम्मीपापा की दी हुई सीख और पारिवारिक संस्कारों ने उन की जबान पर ताला जड़ दिया था। छटपटाहट में कई रातें आंखों में ही कट गईं। पर करें तो क्या करें? सोने का पिंजरा तोड़ने की तो हिम्मत है नहीं। और जैसा होता है, धीरे धीरे रमतेरमते वह उसी वातावरण की आदी हो गईं।

दिल्ली जा कर टेस्ट दिए हैं, क्लासें की हैं। मैं जानती हूं पापा, आना मुश्किल ही नहीं, असंभव है। मैं तो बस, अपने आप को आजमाने के लिए बैठना चाहती हूं। प्लीज, पापा, प्लीज। और सिद्धांत पसीज गए। उन्होंने सोचा, आना तो है नहीं, करने दो पागलपन। बोले, चल, कर ले शौक पूरा। तू भी क्या याद करेगी अपने पापा को। हंसती खिलखिलाती पुलक मेन्स में बैठ गई। और यह क्या? शायद निषेध संघर्ष करने की क्षमता में एकदम वृद्धि कर देता है। व्यक्ति को अधिक गहनता से उत्साहित करता है। पुलक की तो रैंक भी 400 की आ गई है। आराम से दिल्ली में प्रवेश मिल जाएगा। ऐसा तो सचमुच न पुलक ने सोचा था और न ही तरंग ने। अब? मांबेटी दोनों ऐसी सकते में हैं जैसे कोई अपराध कर डाला हो। पुलक की इतनी बड़ी उपलब्धि इस परिवार के घिसेपिटे विचारों या पता नहीं झूठी मानमयार्दा के कारण एक पाप बन गई है। दूसरे परिवारों में तो बच्चे के 3-4 हजार रैंक लाने पर भी उस की पीठ ठोंकी जा रही होगी, जश्न मनाया जा रहा होगा। बेचारी पुलक का हμता इसी उलझन में निकल गया कि बताए तो कैसे बताए?
तरंग भी हैरान हैं। वह मौके की तलाश में हैं कि यह खुशखबरी कैसे दें, कब दें। बात तो सचमुच हैरानी की है। दुनिया कहां से कहां छलांग लगा रही है। करनाल जैसे छोटे से शहर की कल्पना चावला ऐसी ऊंचाइयां छू सकती है तो उसी भारत के महानगर कोलकाता का यह परिवार इतना दकियानूसी? आज भी परिवार की मानमयार्दा के नाम पर पत्नी का, कन्या का ऐसा मानसिक शोषण? असल में पारिवारिक संस्कारों और परंपराओं का बरगद जब अपनी जड़ें फैला लेता है तो उसे उखाड़ फेंकना प्राय: असंभव हो जाता है। वही यहां भी हो रहा है। काउंसलिंग की तारीख नजदीक आती जा रही है। घर में तूफान आया हुआ है, पुलक सब को मनाने की कोशिश में लगी हुई है लेकिन वे टस से मस होने को तैयार नहीं हैं। लड़की को इंजीनियर बनाने के लिए होस्टल भेज कर पढ़ाना कोई तुक नहीं है। लड़की को इंजीनियर बना कर करना क्या है? नौकरी करानी है? साल 2 साल में शादी कर के अपना घर बसाएगी, दादाजी का तर्क है। बेटा, इतनी ऊंची पढ़ाई करना, लड़के वाले सपने देखना कोई बुद्धिमानी नहीं। अब देख, तेरी मां ने भी तो आई।आई।एम। से एम।बी।ए। किया। क्या फायदा हुआ? एक सीट बरबाद हुई न? कोई लड़का आता, उस पर नौकरी करता तो सही इस्तेमाल होता उस सीट का। तू तो बी।एससी। कर के कालिज जाने का शौक पूरा कर ले, सिद्धांत ने बड़े प्यार से पुलक का सिर सहलाया। तरंग ने सब सुना। उन्हें लगा, जैसे आरे से चीर कर रख दिया सिद्धांत के तर्क ने। खुद चोर ही लुटे हुए से प्रश्न कर रहा था। विवाह के 22 साल बीत चुके हैं। आज तक कभी उन्होंने सिद्धांत की कोई बात काटी नहीं है। तर्कवितर्क नहीं किया है। आज भी चुप लगा गईं। सहसा यादों की डोर थामे वह 24 साल पहले के अतीत में पहुंच गईं। आई।आई।एम। से तरंग के प्रवेश का कार्ड आने के बाद पापा परेशान थे। क्या करूं कल्पना, कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। लड़की के रास्ते की रुकावट बनना नहीं चाहता और उस पर उसे चलाने का साधन जुटाने की राह नहीं दिख रही। शान से सिर ऊंचा हो रहा है और शर्म से डूब मरने को मन कर रहा है, पापा सचमुच परेशान थे। अरे, तो सोच क्या रहे हैं? भेजिए उसे। हां, भेजूं तो। पर होस्टल का खर्च उठाने की औकात कहां है हमारी? ओह, यह समस्या है? वह प्रबंध मैं ने कर लिया है। शकुंतला चाची की लड़की सुहासिनी कोलकाता में है। पिछले साल ही अभिराम का तबादला हुआ है। मेरी बात हो गई है सुहास से। लेकिन इतना बड़ा एहसानङ्घ बात एकदो दिन की नहीं पूरे 2 साल की है। हां, वह भी बात हो गई है मेरी। बड़ी मुश्किल से मानी। 1 हजार रुपया महीना हम किट्टू के नाम जमा करते रहेंगे। किट्टू? अरे, भई, उस की छोटी बेटी। बस, बाकी तरंग समझदार है। मौसी पर बोझ नहीं, सहारा ही बनेगी। बहुत बड़ा बोझ उतरा था पापा के सिर से, वरना वह तो पी।एफ। पर लोन लेने की सोच रहे थे। बेटी के उज्ज्वल भविष्य को अंधकार में बदलने की तो वह सोच ही नहीं सकते थे। एक वह पिता थे और एक यह सिद्धांत हैं। बेचारी पुलक आज्ञाकारिणी है, उन की तरह जिद्दी नहीं है। वह अपने पापा की आंखों में आंखें डाल कर कभी बहस नहीं करेगी। बस, मम्मी का आंचल पकड़ कर रो सकती है या घायल हिरणी की तरह कातर दृष्टि उन पर टिका सकती है। अचानक तरंग को लगा कि वह अपने और पुलक के पापा की तुलना कर रही है, तो दोनों की मम्मियों की क्यों नहीं?

उस की अनपढ़ मम्मी ने उपाय निकाला था और वह स्वयं इतनी शिक्षित हो कर भी असहाय हैं, मूक हैं, क्यों? कहीं उन की अपनी कमजोरी ही तो बेटी की सजा नहीं बन रही। उन की बेजबानी ने बेटी को लाचार बना दिया है। कुछ निश्चय किया उन्होंने और रात में सिद्धांत से बात कर डाली। सिद्धांत, आप ने पुलक को मेरा उदाहरण दिया। पर जमाना अब बदल गया है। आज लड़कियां लड़कों की तरह अलगअलग क्षेत्रों में सक्रिय हैं और फिर जरूरी तो नहीं कि सब के विचार आप लोगों की ही तरह हों। समय के साथ विचारों में भी परिवर्तन आता है। हो सकता है उस की डिगरी मेरी तरह बरबाद न हो और डिगरी तो एक पूंजी है, जो मौका पड़ने पर सहारा बन सकती है। आप क्यों अपनी बेटी के पंख कतरने पर तुले हैं? जलती आंखों से देखा सिद्धांत ने, कि इस मुंह में जबान कैसे आ गई? फिर तुरंत मुसकरा पड़े। तीखे स्वर में बोले, आ गया आंधी का झोंका तुम पर भी। वुमेन इमैन्सिपेशन? बेटी है न? तो सुनो, तुम्हारे बाप ने तुम्हें इसलिए पढ़ा दिया, क्योंकि उन्हें अपनी हैसियत का पता था। पढ़लिख कर नौकरी करेगी, अफसर बनेगी। उन्हें पता था कि वह किसी ऊंचे घराने में बेटी ब्याहने की हैसियत नहीं रखते। पर मुझे पता है कि मेरी औकात है अपनी बेटी को ऐसे ऊंचे खानदान में देने की, जहां वह बिना दरदर की खाक छाने राज करेगी। यह तो तुम्हारी किस्मत ने जोर मारा और तुम मुझे पसंद आ गईं, वरना इतने नीचे गिर कर भला हम लड़की उठाते? अब इस विषय में कोई बात नहीं होगी। दिस चैप्टर इस क्लोज्ड। बारबार एक ही बात दोहराना मुझे बिलकुल पसंद नहीं, और वह करवट बदल कर सो गए। तरंग की वह रात आंखों में कटी। तीसरे दिन जिम से लौटने पर सिद्धांत बाहर टैक्सी खड़ी देख हैरान रह गए। पूछने ही वाले थे कि कमरे से तरंग को निकलते देखा। काले रंग की बालूचरी साड़ी में लिपटी उन की कोमल काया थोड़ी कठोर लग रही थी। हैरान होने की आज उन की बारी थी। कहां जा रही हो? सुनीता के यहां, लेकिन इतनी सुबह? तरंग अपनी बचपन की सहेली सुनीता के यहां कभीकभी चली जाती हैं। वह सीधी आगे बढ़ कर सिद्धांत से मुखातिब हुईं। नहीं, सुनीता के यहां नहीं। साढ़े 9 वाली μलाइट से दिल्ली जा रही हूं। किस लिए, यह आप समझ ही गए होंगे। वहां मैं रमण अरोड़ा के घर रुकूंगी। यह रहा उन का पता। उन्होंने सिद्धांत के हाथ में कार्ड पकड़ा दिया। तब तक पुलक हाथ में अटैची पकड़े अपने कमरे से बाहर आ चुकी थी। सिद्धांत तो इस कदर अकबका गए कि बोल ही बंद हो गए। मांजी बाहर ही खड़ी थीं, उन्होंने चुप्पी तोड़ी, लेकिन जा ही रही हो तो मौसी के घर रुक जातीं। गैरों के घर इस तरह नहीं मम्मीजी, मौसी के घर रुकने में परिवार की बदनामी होगी। अकेली जा रही हूं न बेटी के साथ। क्या बहाना बनाऊंगी? और फिर कौन गैर, कौन अपना सब के मुंह पर ताले लग गए। तरंग ने मांबाबूजी के पैर छुए। एक हाथ में पोर्टफोलियो और दूसरे से पुलक का हाथ पकड़ सीधे निकल गईं। मुड़ कर देखा तक नहीं। ?
तरंग ने सब सुना। उन्हें लगा, जैसे आरे से चीर कर रख दिया सिद्धांत के तर्क ने। खुद चोर ही लुटे हुए से प्रश्न कर रहा था। विवाह के 22 साल बीत चुके हैं। आज तक कभी उन्होंने सिद्धांत की कोई बात काटी नहीं है। तर्कवितर्क नहीं किया है। आज भी चुप लगा गईं। सहसा यादों की डोर थामे वह 24 साल पहले के अतीत में पहुंच गईं।