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पंडित श्री कृष्ण दत्त पालीवाल : एक शब्द चित्र

लेखक — पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी

कलकत्ता के ग्रेट ईस्टर्न होटल के एक शानदार कमरे में अमेरिका की सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘एशिया’ के सम्पादक मि० बाल्श से बातचीत हो रही थी। राजनैतिक विषयों के छिड़ने पर मि० बाल्श ने कहा- मैं साधारण जनता का दृष्टिकोण इन मामलों पर जानना चाहता हूँ। कल ही मैं उत्तर भारत की ओर जा रहा हूँ। क्या किसी ऐसे नेता का नाम आप बता सकते हैं, जो Masses के भावों को मुझे बता सके।”

तुरन्त ही हमने कहा- आप पालीवाल जी से मिलिये।”

मि० वाल्श आगरा आये और पालीवाल जी के घर पर उनसे मिले और उनके विस्तृत राजनैतिक ज्ञान, अद्भुत क्रियात्मक बुद्धि और स्पष्ट विचार शैली से अत्यन्त प्रभावित हुए।

• पालीवाल जी के व्यक्तित्व के प्रभाव का मूल कारण उनकी वह प्रबल सहज बुद्धि है, जो प्रकृति से यद्ध करने वाले श्रमिकों में पाई जाती है और वह स्पष्ट विचार शैली है, जिस पर कोई भी सुलझे हुए दिमाग का तार्किक गर्व कर सकता है। राजनैतिक दाँव-पेंच के जिस जंगल में वास्तविकता से कोसों दूर रहने वाले शहरी नेता आसानी से उलझ जाते हैं, वहाँ पालीवाल जी की ग्रामीण सहज बुद्धि उन्हें अपना मार्ग स्पष्ट बतला देती है।

पुराने ढंग के किसी कांग्रेसी नेता के और पालीवाल जी के व्यक्तित्वों की तुलना करते हुए दोनों का अन्तर साफ मालूम हो जाता है और नेतृत्व के कम विकास की तस्वीर आँखों के सामने खिंच जाती है। उन दोनों का अध्ययन आरामकुर्सी’ और ‘कंटकाकीर्ण पथ का तुलनात्मक अध्ययन है।

भारत की साधारण जनता किसी ऐसे नेता को नहीं चाहती, जो साहबी ढंग से ऊँची स्टाइल में रहने वाला विचित्र जन्तु हो। वह केवल उन्हीं को स्वीकार कर सकती है, जो उनकी तरह रहते हों, उन्हीं जैसा खाते-पीते हों, उन्हीं में से एक हों। वह लीडर नहीं चाहती, बन्धु (Comrade) चाहती है और यह कामरेडशिप या बन्धुत्व पालीवाल जी में पूर्ण मात्रा में पाया जाता है। यदि उनके साथी दो-तीन बार जेल जाते हैं, तो वे छः बार और यदि उनके साथियों पर आर्थिक संकट पड़ता है, तो वे भी रूखी रोटी पर गुजर कर उनकी भरपूर सहायता करते हैं। आज से कुछ वर्ष पहले जब इन पंक्तियों का लेखक हिन्दी के एक अत्यन्त प्रतिष्ठित पत्रकार के सम्मुख पालीवाल जी की कटु आलोचना कर रहा था, उन्होंने कहा-

“पालीवाल जी को आप शुष्क हृदय समझते हैं। मैं आपको बतलाऊँ कि अपने साथियों तथा कार्यकर्ताओं के प्रति ऐसा सहृदयतायुक्त बर्ताव बहुत कम लोग करते होंगे। आर्थिक संकट के दिनों में मुझे उनसे कई सौ रुपये की मदद मिली थी, जिसका जिक्र भी उन्होंने किसी से नहीं किया।” पालीवाल जी ने अपने सहयोगियों की जितनी आर्थिक सहायता की है, उतनी दानशीलता का दम भरने वाले अनेक धनाढ्यों ने भी न की होगी।

इस बात से लोगों को आश्चर्य होगा, पर है यह बिलकुल ठीक कि पालीवाल जी की कठोर प्रवृत्ति के पीछे एक अत्यन्त कोमल प्रेमी हृदय छिपा हुआ है। उनका बन्धुत्व पूर्ण हार्दिक आलिंगन क्या कभी भुलाया जा सकता है? पर देश की स्वाधीनता की वलिवेदी पर यह निर्मोही सैनिक प्रेम की कोमल-से-कोमल भावनओं को भी बेखटके बलिदान कर सकता है। किसी देश-विद्रोही के लिए पालीवाल जी का आलिंगन वैसा ही विघातक हो सकता है, जैसा धृतराष्ट्र का भीम की मूर्ति के प्रति हुआ था अथवा शिवाजी का अफजल खाँ के लिए!

पालीवाल जी का घर किसी कुर्सी-तोड़ स्वयम्भू नेता का बंगला नहीं है, जहाँ जाते हुए हमारे जैसे पढ़े-लिखे आदमी को भी डर लगता हो, गँवार किसान की बात तो दूर रही। वह तो कार्यकर्ताओं का आश्रय-स्थान है और ऐसे अवसरों पर भी, जब खुद पालीवाल जी के पास खाने को पैसा नहीं था, उन्हें आठ-आठ, दस-दस कार्यकर्ताओं के भोजन का प्रबन्ध करते हुए हमने देखा है। पालीवाल जी के लिए राजनीति आरामतलबी के साथ ब्लूबुक्स (सरकारी रिपोर्ट) का अध्ययन नहीं और न उनकी क्रियाशीलता अँगरेजी के Fine Phrases (कोमलकान्त पदावली) के प्रयोग तक ही परिमित है।

पालीवाल जी उन लोगों में से नहीं हैं, जो हाथ-पाँव बचाकर मूजी को टरकाने की नीति में विश्वास रखते हैं, उनकी नीति सदा मूजीकी गर्दन पकड़ने की रही है, चाहे इस प्रयोग में अपने हाथ-पाँव तो क्या, जान भी सही सलामत न निकले!

भारतीय जनता अब कोरम-कोर विद्वत्ता से प्रभावित नहीं हो सकती। वह त्याग और तपकी महिमा को भली-भाँति समझ गई है और पालीवाल जी का जीवन एक तपस्वी सैनिक का जीवन रहा है।

पिछली बार जब पालीवाल जी जेल से छूटकर आये, तो उनसे मिलने के लिए हम उनके घर पर गये। माईथान की एक गन्दी गली में उनका मकान मिला। पालीवाल जी घर पर थे नहीं। उस वक्त हमें एक मजाक सूझा एक दोहा लिखकर वहाँ रख आये-

“कहाँ आइकै हौ बसे बन्द गली के तीर

जहाँ जाइबेमें परै भक्तनपै अति भीर।”

जब दूसरी बार हम उनसे मिलने के लिए गये, तो पालीवाल जी ने सारा मामला समझाया, जिससे हमें अपने व्यंगपर मन-ही-मन अत्यन्त लज्जित होना पड़ा। यदि पालीवाल जी चाहते, तो किसी प्रोफेसर की भाँति सात-आठ सौ रुपये पाते होते और शहर की गन्दगी से दूर किसी बढ़िया कोठों में रहते और बैंक में हजारों रुपये होते और होती चढ़ने के लिए मोटर। पर तब पालीवाल जी निर्जीव इतिहास पढ़ाते और आजकल वे सजीव इतिहास का निर्माण कर रहे हैं।

पालीवाल जी को अपने निर्धनता पर उचित अभिमान है उस निर्धनता पर जिसे उन्होंने स्वयं ही निमन्त्रित किया है। इस दृष्टि से वे भृगु ऋषि के असली वंशज हैं-उन भृगु के, जिन्होंने लक्ष्मी पति के लात मार दी थी।

जब दूसरे कितने ही नेता-केवल लिबरल दल के ही नहीं, कांग्रेसी भी- बड़े आदमियों की खुशामद करते फिरते हैं। पालीवाल जी के अदम्य स्वाभिमान और गौरवमय अक्खडपन को देखकर अत्यन्त हर्ष होता है। लोग कहते हैं कि पालीवाल जी कठोर भाषा का प्रयोग करते हैं, वे सहनशील नहीं हैं, वे कभी-कभी साहित्यिक शिष्टता का उल्लंखन कर जाते हैं। यह सुनकर हमें अमेरिका में गुलामी- प्रथा के विरुद्ध घोर आन्दोलन करने वाले गैरीसन की एक बात याद आ जाती है। जब गैरीसन से किसी ने कहा- “आप जरा माडरेट भाषा का प्रयोग किया कीजिये”, तो गैरीसन ने कहा- “जनाब, गुलामों की दुर्दशा देखकर मेरा दिल जल रहा है। आप आग से कहते हैं कि वह ठंडी हो जाय!”पालीवाल जी की मनोवृत्ति के विषय में भी वही बात कही जा सकती है। किसानों और मजदूरों पर होते हुए अत्याचार उन्होंने अपनी आँखों से देखे हैं। नौकरशाही का नंगा नाच वे नित्य-प्रति देखते हैं (जब शायद दूसरे प्रकार के नेता साहबों और मेमों का ‘बाल-नाच देखते हों)। पुलिस के जुल्मों के सैकड़ों दुष्टान्त उनके सामने गुजरे हैं और देश की गुलामी के कारण उनकी अन्तरात्मा में वह अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई है, जो उन्हें कदापि शान्त नहीं रहने देती।

पालीवाल जी की कठोरता एक सैनिक की कठोरता है और जिस दिन उन्होंने साहित्य-रत्न’ होते हुए साहित्य क्षेत्र को तिलांजलि देकर सैनिक क्षेत्र में प्रवेश किया, उसी दिन उन्होंने माडरेटपन और कोमल भाषा को अन्तिम नमस्कार कर दिया।

जो महानुभाव पालीवाल जी के उग्र स्वभाव से घबराते हैं, उनसे हमें इतना ही कहना है कि हर एक आदमी की कुछ मानुषिक कमजोरियाँ हुआ करती हैं और जबान पर संयम न होना पालीवाल जी की एक बड़ी भारी कमजोरी है। पालीवाल जी सचमुच ही एक ऐतिहासिक महापुरुष होते, यदि वे जबान पर काबू रख सकते-खाने में भी और बोलने में भी! पर पालीवाल जी के इस मरखनेपन पर विजय प्राप्त करने के कुछ उपाय हैं। एक अनुभूत प्रयोग हम यहाँ लिख देते हैं। जब पालीवाल जी से राजनैतिक विषयों पर वाद-विवाद किया जाय, उस समय चार पैसे की गैंड़ेरी मँगाकर रख ली जावें। हमने ऐसा ही करके फिर पालीवाल जी के सामने माननीय श्री निवास शास्त्री और पत्रकार शिरोमणि सी. वाई चिन्तामणि की दिल खोलकर प्रशंसा की है। जिस समय अपने राजनैतिक विरोधियों के प्रति सहिष्णुता न होने के कारण पालीवाल जी दाँत पीसते हैं, उसी समय गंडेरी उनकी दाढ़ के नीचे दबकर जुबान की सरसता को बढ़ाकर उनकी कटुता को कम कर देती है। पर एक मुश्किल है कि गंडेरी हर मौसम में मिलती नहीं। अभी उस दिन पालीवाल जी दो महिलाओं से लड़ पड़े, तब हमने अपना आजमूदा नुस्खा बतलाया। चूँकि गैंड़ेरी का मौसम न था, इसलिए एक महिला के प्रस्ताव पर यह निश्चित हुआ कि गॅड़ेरी की जगह ‘कसेरू’ ले सकते हैं।

पालीवाल जी प्रगतिशील हैं। राजनैतिक क्षेत्र में अपने को उचित ट्रेनिंग देने का कोई अवसर वे नहीं छोड़ते। स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी पालीवाल जी राजनैतिक सूझ की अत्यन्त प्रशंसा करते थे और उनकी सहज बुद्धि पर अटल विश्वास रखते थे। पालीवाल जी की प्रगतिशीलता का एक दृष्टान्त सुन लीजियें। शहरों में रहते हुए और पत्रों में लेख लिखते हुए उन्हें ज्ञात हुआ कि वे अपनी ग्रामीण भाषा का प्रयोग भूलते जाते हैं। उन्होंने शीघ्र ही अपनी इस त्रुटि को दूर करने का उपाय करना प्रारम्भ किया और ग्रामवासी कार्यकर्ताओं के भाषण सुनकर उन्होंने अपनी इस कमी की पूर्ति कर ली। आज युक्त प्रान्त में शायद ही कोई ऐसा नेता निकले, जो ग्रामीण जनता को अपने हृदगत भाव इतनी आसानी के साथ समझा सके। जब गाँव वाले किसी अँगरेजीदों नेता के भाषण को सुनते हैं, कहते हैं- “कही तो बाने कछु जरूर, बाके ओठक हिले, पर जि समझि में नई आई कि का कहि गयौ !”

यदि इस देश में क्रान्तिका युग लाना है, तो न वह बामुहावरे अंग्रेजी से आवेगा और न लच्छेदार कोमल साहित्यिक भाषा से उसके लिए तो पालीवाल जी की ठेठ गँवारी भाषा सीखनी पड़ेगी। लेनिन की स्त्री ने अपने संस्मरणों में एक जगह लिखा है कि लेनिन ने बहुत प्रयत्न करके मजदूरों की भाषण-शैली सीखी थी।

लोग कहते हैं कि पालीवाल जी ने यह त्याग किया है, वह त्याग किया है, पर वे उनके सबसे बड़े त्याग को भूल जाते हैं। पालीवाल जी में अद्भुत लेखनशक्ति है, उनकी कलम में जादू है, आश्चर्यजनक परिश्रमशीलता है और यदि वे अपने को राजनैतिक झंझटों से अलग रखकर साहित्य-निर्माण में लगाते, तो वे भारत के अप्टन सिनक्लेयर बन जाते। अपने साहित्यिक भविष्य को राजनीतिक बलिवेदी पर कुर्बान कर देना, एक ऐसे आदमी के लिए, जो अपनी लेखनी के प्रभाव को जानता है, अत्यन्त कठिन है।

पालीवाल जी के विषय में फैसला देते हुए लोग एक बात भूल जाते हैं, वह यह कि वे क्रान्तिकारी हैं। चुंगी और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, कौन्सिल और एसेम्बली में पदार्पण उनके जीवन का लक्ष्य न कभी था और न कभी होगा। ये सब अन्तिम लक्ष्य के साधन मात्र हैं। सरकार इस बात को अच्छी तरह जानती है और उसने पालीवाल जी, उनके सैनिक तथा उनके साथियों को दमन करने में कभी रियायत नहीं की। स्वर्गीय गणेश जी के ‘प्रताप’ को छोड़कर स्वार्थत्याग तथा बलिदान का ‘सैनिक’ जैसा दृष्टान्त हिन्दी-जगत में कोई दूसरा न होगा।

युक्त प्रान्तीय सरकार ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा था- “सैनिक’ निरन्तर साम्यवादी सिद्धान्तों का प्रचार करता रहा” आज तो साम्यवाद की चर्चा पत्रों में बहुत काफी चल रही है, पर आज से कितने ही वर्ष पहले से पालीवाल जी साम्यवाद का विधिवत् अध्ययन कर रहे हैं और साम्यवादी विचारों का प्रचार भी।

पालीवाल जी के राजनैतिक विचारों की बड़ी भारी कमजोरी वही है, जो शासन या डिक्टेटरशिप में विश्वास रखने वालों की होती है। ऐसे लोगों की समझ में यह बात कदापि नहीं आ सकती कि असली साम्यवाद तो अराजकतावादी साम्यवाद है और यदि किसी देवता को भी डिक्टेटर बना दिया जाय, तो वह स्वभावतः दानव बन जाता है। देवराज इन्द्र तक की डिक्टेटरी के दुष्परिणाम जानते हुए भी लोग डिक्टेटरी में कैसे विश्वास कर लेते हैं। यह बात हमारी बुद्धि के तो परे है। एक अराजकतावादी तो पालीवाल जी की निर्दय डिक्टेटरी के अधीन रहने के बजाय उनकी जेल में रहना अधिक पसन्द करेगा।

पलीवाल जी का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? यह प्रश्न जरा कठिन है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि पालीवाल जी उन आदमियों में से हैं, जिनके हाथ में या तो शासन की बागडोर होगी, या फिर जिनकी गर्दन में रस्सी का फन्दा और सच बात तो यह है कि पालीवाल जी पहली चीज की अपेक्षा दूसरी को ही अधिक पसन्द करेंगे।

मैनपुरी – षड्यन्त्र केस के पालीवाल जी और लेजिस्लेटिव एसेम्बली के सदस्य श्रीयुत श्री कृष्णदत्त पालीवाल एम० एल० ए० की मनोवृत्ति में जरा भी अन्तर न होगा। पालीवाल जी क्रान्तिकारी थे, हैं और रहेंगे।