Education

इतिहास में सिमटी शिक्षा

भारत देश बड़ा ही महान या फिर मेरा भारत महान आखिर क्या है यहां महान यहां के लोग…? नहीं यहां का शासन या प्रशासन…? नहीं यहां की स्थिति या परस्थिति…? वो भी नहीं यहां की कानून व्यवस्था या अर्थव्यवस्था…? वह तो बिल्कुल भी नहीं तो फिर क्या…? महान वो है जिसने अपनी महानता साबित की है और भारत में महनता साबित की है यहां के समृद्ध इतिहास नें वो इतिहास जिसने शिक्षा को अपने अंदर समाए रखा किसी वीर को उसके बाजुओं के बल पर नहीं बल्कि कौशल बुद्धि की तर्ज पर वीर बनाया कौशल बुद्धि कोई अपनी मां की कोख से लेकर नहीं आता यह तो उसे संसार में आने के बाद अर्जित करनी होती है चाहे वह अपने जीवन में गलतियों के परिणामों से सीखे या फिर किसी उर्वर गुरु के माध्यम से…

वह एक समय था जब दुनियां के हर एक कोने में भारत की ख्याति थी युवा शिक्षा के लालच में अपना आराम, चैन, प्रतिष्ठा सब कुछ त्याग कर जमीन पर बैठने को अग्रसर रहता ताकि उसे शिक्षा का अमृतपान हो सके कहीं-न-कहीं शिक्षा का दान देने वालें या फिर इसे लेने वाले दोनों को ही शिक्षा से एक भावनात्मक जुड़ाव था उनके मन में इसे लेकर आदर की भावना थी। उन महान शिक्षा दानवीरों ने शायद कभी यह न सोचा होगा कि ऐसा कब तक चलेगा समय का पहिया कब तक एक फेरे में घूमेगा। अखिर वहीं हुआ समय के पहिये ने अपना फेर बदला चलती हुई ब्यार ने अपना रुख पलटा दानवीरों के मन में खोट आया निर्मल, निश्छल मन से दी जाने वाली शिक्षा अब अपने आनंदविलास के लिए दी जाने लगी लालच की एक ऐसी आग भड़की जो बुझाए न बुझी जिसकी आहुति बने वो युवा जिनके मन में कोई खोट नहीं था वो युवा जो अपनी मेहनत और परिश्रम के बल पर शिक्षा पाना चाहते पर इस बढ़ती हुई अग्नि से अब वे भी अछूते ना थे। धीरे- धीरे कुछ संस्थानों के लिए शिक्षा की परिभाषा ही ादलने लगी शिक्षा अब खुद को सशक्त करने के लिए या सुसज्जित संसार का निर्माण करने के लिए या फिर एक प्रमुख व्यक्तित्व के लिए नहीं वह तो अब बस अंकों का खेल या फिर नौकरशाही के लिए एक अवसर बनकर रह गयी। कुछ छोटे मोटे और बड़े-बड़े संस्थानों ने मिलकर ऐसे बाजार बना लिए हैं जहां वे शिक्षा बेचकर मुनाफा कमाते हैं और स्वयं की झूठी प्रतिष्ठा पर इतराते हैं बड़े-बड़े दावे करते हैं कि उनसे बेहतर कोई नहीं असल में भूल जाते हैं छात्र की लगन से बढ़कर कुछ नहीं बड़े-बड़े अंको का हवाला देकर ज्यादा से ज्यादा छात्रों को प्रवेश देते हैं और फिर उनके पुरस्कारों को अपने सर और उनकी विफलताओं को उन्हीं के सर मढ़कर स्वयं की कमियों को छिपाते हैं तथा अपने नाम का डंका शहर भर में बजाते हैं किसी भी छात्र को पूर्ण बनाने की बात करते हैं बड़ी-बड़ी डींगे हांकते हैं पर प्रकृति का नियम है पूर्ण तों चांद भी नहीं उसमें भी दाग है तो इंसान के पूर्ण होने की अपेक्षा कैसे की जाए कहीं-न-कहीं उसमें भी कमियां है जिसे कोई संस्थान कितनीे भी मोटी रकम लेकर नहीं भर सकता उन कमियों को पूर्ण रूप से तो नहीं लेकिन इंसान की दृढ़ इच्छा- शक्ति के बल पर काफी हद तक कम किया जा सकता है नहीं तो इन्हीं बड़े-बड़े वादों के बल पर कोई संस्थान कितना भी पैसा छाप सकता है।

अंकित कुमार वार्ष्णेय