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मैं आसानी से हार नहीं मानता

इतिहास भूल सकता है, लेकिन मैं नहीं भूलूंगा, बंगाल के प्रथम दलित लेखक मनोरंजन व्यापारी

पिछले दिनों ही सम्पन्न हिन्दू साहित्य उत्सव में, कहानी-इतर श्रेणी में मूलत: अनपढ़ श्री व्यापारी को उनकी अंग्रेजी भाषा में रचित पुस्त इंटेरोगेटिंग माई चांडाल लाइफ-एक दलित की आत्मकथा को अनुवादक प्रो. शिप्रा मुखर्जी के साथ जब पुरस्कृत किया तो उनके नैन सजल हो गए। उनके जीवन के कुछ अविस्मरणीय अनुभव।
जब आप पुरस्कार गृहण कर रहे थे, तो आंखों में आंसू स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। उस क्षण आपके मानस में क्या घटित हो रहा था? मैंने कभी नहीं सोचा था कि जीवन में मुझ जैसा नक्सलवादी के रूप में जेल यात्रा करने वाला पराधी, रिक्शा चालक और अब रसोइया कभी इतने नामी-गिरामी लेखकों और प्रभावशाली छवियों वाले लोगों के साथ, इस प्रकार मंचासीन होगा। वास्तव में हिन्दू ने इतिहास रखा है, जिसने मुझ जैसे जुबान को मुखर आवाज दी। आपके लिए इतिब्रिते चंडाल जीबोन (माई चंडाल लाइफ) लिखना कितना कठिन रहा है? लेखन मेरे लिए नैसर्गिक प्रक्रिया रही है क्योंकि मैं अपनी स्वयं कहानी का बयान करता रहा हूं। यदपि मैंने कभी स्कूल में पढ़ाई नहीं की, फिर भी सीखने की बड़ा जिज्ञासा रही है। मेरी मान्यता है कि पढ़ा लिखा होना मानव के स्वशक्तिकरण (सेल्फ एम्पॉवरमेंट) का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। मेरा जन्म से ही दलित होना दूसरों से मेरे सम्बंधों को इस सीमा तक परिभाषित करता है कि वे कुछ सीमा से आगे नहीं बढ़ पाते। यदपि लेखक के रूप में मुझे मान्यता मिली है, लेकिन व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में स्थिति वैसी की वैसी है। इस पुरस्कार को प्राप्त करने के समारोह के सम्पन्न होने के उपरांत मैं एक बार पुन: अपने मूल कार्य, हैलन कैलर मूक एवं बाधिर संस्थान, कोलकाता में रसोइए के कार्य में संलग्न हो जाऊंगा, जहां मैं सब्जियों को धोता, छीलता और काटता हूं। 150 बच्चों के लिए भोजन बनाता हूं और खिलाता हूं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुझे अपनी पुस्तकों को पूरा करने के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ा है। आपकी बहन की मृत्यु भूख के कारण हो गई, आपको अपराधी घोषित कर जेल यात्रा करनी पड़ी, फिर भी आप अपना मानसिक संतुलन कैसे बनाए रख सके? मैं जिद्दी और संघर्षशील व्यक्तित्व का धनी रहा हूं। मैं उस प्रत्येक अवसर का लाभ उठाना चाहता और उठाता हूं, जो मेरे सामने आता है, फिर चाहे लोग कितने ही व्यंग क्यों न करें और मुझे धूल चटाने का कितना ही प्रयास क्यों न करें। मेरा आत्मविश्वास ही मेरा स्वाभिमान है और उसी के सहारे मैं आगे बढ़ता रहूंगा, क्योंकि मैं आसानी से हार नहीं मानता। जीवन की किसी विशेष घटना का स्मरण करें, जिसने आपके जीवन की राह ही बदल दी? इस क्रम में मैं वह क्षण का स्मरण करता हूं, एक दिन बंगला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी, मेरे रिक्शे में यात्री के रूप में बैठ गई। रास्ते में मैंने उनसे बंगला भाषा के शब्द जिजीविषा (जीवन जीने की ललक) का अर्थ पूछा। वह मेरी रूचि देखकर और जीवन की कहानी सुनकर आश्चर्यचकित हो गईं और मुझसे अपनी पत्रिका वर्तिका के लिए लिखने लिए कहा, यदपि उन्होंने मेरा एक ही लेख प्रकाशित किया, लेकिन उन्होंने मुझे लेखक के रूप में खड़ा कर दिया और मुझे कलम की ताकत से परिचय कराया। तत्पश्चात मीनीक्षी मुखर्जी ने मेरे एक लेख का अंग्रेजी में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक था क्या बंगला में भी कोई दलित लेखक है? यह इकोनोमिक एवं पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित हुआ था, जिसने मुझे बड़ी प्रसिद्ध दिलाई। और जब प्रो. शिप्रा मुखर्जी ने मेरी आत्मकथा अंग्रेजी भाषा में पाठकों के सामने प्रस्तुत की तो मुझे भरपूर लोक प्रसिद्धि मिली। लेकिन यह मेरे मस्तिष्क में भली-भांति स्थापित हो चुका है कि मैं जहां रहता हूं कार्य करता हूं, मैं आज भी छोटी जाति का (शूद्र) अछूत, स्पर्श न करने योग्य हूं। आपकी अगली योजना क्या है? मेरे स्मरणों का दूसरा भाग भी अंग्रेजी में अनूदित हो चुका है और शीघ्र ही पाठकों के सम्मुख आ जाएगा। ये दोनों खंड उन सभी घटनाओं/ क्रियाकलापों का वर्णन प्रस्तुत करने हैं जो मेरे साथ घटी है- भूख, वंचित, अपमान एवं संघर्ष और इन सभी के बीच मेरे जीवन में आगे बढ़ते रहने और कार्य करते रहने की लालसा रही है। मेरा अगला उपन्यास पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित परिवारों से संबंद्ध होगा, जिन्हें प्रथमत: दंडकारण्य की विपरीत परिस्थितियों से परिपूर्ण परिवेश में स्थापित किया गया था और अंतत: मरीचाकपी द्वपीप समूह में जा बसे जो सुंदरबन क्षेत्र में स्थित है। दलित होना और दलितों की त्रासदी मेरे लेखन के केंद्र बिन्दु हैं। जैसे वंचितों की कठिनाइयां, जिन्हें इतिहास तो भूल सकता है, लेकिन मैं कभी नहीं भूलूंगा।

डॉ जी एस पालीवाल जी द्वारा

लिया गया साक्षात्कार पर आधारित