मृत्यु की मुस्कान मोक्ष की अनूठी यात्रा
भारत का इतिहास संत और मुनियों की गौरवमयीगाथाओं से भरा है। इस देश की धरती पर अनेक तीर्थंकर, अवतार, महापुरुष एवं संतपुरुष अवतरित हुए जिन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से समाज व राष्ट्र को सही दिशा और प्रेरणा दी। महापुरुषों की इस अविच्छिन्न परम्परा में शासन गौरव मुनिश्री ताराचंदजी भी एक ऐसे ही क्रांतिकारी संत हैं, जिन्होंने राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में आचार्य श्री महाश्रमणजी के आदेशानुसार 22 मार्च 2019 को संलेखना साधना प्रारंभ की और 7 अप्रैल 2019 को सोलह की तपस्या में स्व इच्छा से ही प्रेरित होकर आजीवन तिविहार अनशन (संथारा) को स्वीकार किया है। जैन धर्म में संथारा अर्थात संलेखना- संन्यास मरण या वीर मरण कहलाता है। यह आत्महत्या नहीं है और यह किसी प्रकार का अपराध भी नहीं है बल्कि यह आत्मशुद्धि का एक धार्मिक कृत्य एवं आत्म समाधि की मिसाल है और मृत्यु को महोत्सव बनाने का अद्भुत एवं विलक्षण उपक्रम है।
मुनि ताराचंदजी विनम्रता, आध्यात्मिक भावना, सहजता, सरलता और समर्पण के प्रतीक असाधारण संत हंै, जिन्होंने देश में हिंसा और क्रूरता के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए लगभग पचास हजार किलोमीटर की पदयात्रा की और अहिंसक समाज की संरचना में संलग्न रहे हैं। उन्होंने 89 वर्ष की आयु में अपने जीवन ही नहीं, बल्कि अपनी मृत्यु को भी सार्थक करने के लिये संथारा की कामना की, जिनका सम्पूर्ण जीवन भगवान महावीर के आदर्शों पर गतिमान रहा है। आप एक प्रतिष्ठित जैन संत हैं। जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, साहित्य-सृजन, संस्कृति-उद्धार के उपक्रमों से एक नया इतिहास बनाया है। एक सफल साहित्यकार, प्रवक्ता, साधक एवं प्रवचनकार के रूप में न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत में सुनाम अर्जित किया हैं। वे बहुआयामी साहित्य के सृजनकार हैं। एक महान् साधक एवं आध्यात्मिक युगपुरुष भी हैं। अपने साहित्य के माध्यम से वे मानवीय मूल्यों के प्रति जनचेतना का सृजन अनेक वर्षों से करते रहे हैं। समाज में व्याप्त बुराइयों एवं विसंगतियों को दूर करने के लिये अपनी लेखनी एवं व्यवहार द्वारा जन-जन को आन्दोलित कर व्यापक परिवर्तन लाने का अभिनव उपक्रम किया हैं।
मुनि ताराचंदजी का जन्म राजस्थान के बीकानेर जिले के अंतर्गत ह्यरासीसरह्ण नामक छोटे कस्बे में 19 जनवरी 1931 में हुआ। पिताश्री रूपलालजी चोरड़िया के आकस्मिक निधन को देखकर मातुश्री
मोती देवी व साध्वीश्री वृद्धाजी (बोरज) की प्रेरणा पाकर आपने मात्र 13 वर्ष की उम्र में सन् 1943 में गंगाशहर में आचार्य तुलसी के करकमलों से दीक्षा ग्रहण की। आपकी सहज साधना, आंतरिक समर्पण वृत्ति व संघनिष्ठा का मूल्यांकन करते हुए आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने 123वें मयार्दा महोत्सव के अवसर पर आपको ह्यशासन गौरवह्ण अलंकरण से अलंकृत किया। ऐसे तो प्रारंभ से ही आपकी साधना के प्रति नैसर्गिक रुचि सही है, समय-समय पर आपने अनेकों प्रेक्षा-प्रयोग, मौन सहित एकांतवास, मौन-ध्यान साधना, लम्बे-लम्बे उपवास एवं मौनपूर्वक सर्वेन्द्रिय संयम की साधना के प्रयोग किए। आपकी आत्मनिष्ठा और स्वस्थ जीवनशैली जन-जन के लिये प्रेरणा का माध्यम बनी रही। इस जीवनशैली के कारण ही जीवन के नौवें दशक में आप तुलनात्मक दृष्टि से पूर्णत: स्वस्थ, सक्रिय व ऊर्जा से परिपूर्ण हैं। जैन धर्म में संथारा की अवधारणा एक स्वस्थ साधना पद्धति है। जिस तरह जीवन एक कला है तो मृत्यु भी उससे कम कलात्मक नहीं है। जो जीवन और मृत्यु की कला को जान जाते हैं वे व्यक्ति सचमुच महान होते हैं। अनशनपूर्वक मृत्यु का वरण न केवल जैन समाज के लिए बल्कि भारतीय संस्कृति के लिए एक विशिष्ट आध्यात्मिक अनुष्ठान रहा है। मृत्यु की मुस्कान से मोक्ष की इस यात्रा पर अग्रसर होकर मुनि ताराचन्दजी न केवल जैन समाज को बल्कि सम्पूर्ण मानवता को एक अनूठा सन्देश दे रहे हैं, जिसके साक्षी बनने के लिये देशभर से हजारों श्रद्धानुजन सरदारशहर पहुंच रहे हैं। आज के पदार्थवादी युग में जबकि हर व्यक्ति सुविधाओं एवं सुख का आकांक्षी है, ऐसे दौर में सुविधाओं का त्याग और संयमपूर्ण जीवन की यह प्रेरक घटना न केवल अलौकिक-विलक्षण हैं, बल्कि आध्यात्मिक जीवन का एक अनूठा अध्याय है। प्रश्न मृत्यु का नहीं, मृत्यु से जुड़ी पवित्र भावना का है। केवल सीढ़ी नहीं,सीढ़ी की हर पायदान मूल्यवत्ता रखता है मंजिल तक पहुंचने में। इसी प्रकार संथारे का हर अनुष्ठान न केवल संथारा करने वाले व्यक्ति की आत्मा को बल्कि उसके परिपाश्र्व में आने वाले असंख्य लोगों की आत्मा को विशुद्धि दे सकता है। संथारे की तुलना आत्महत्या से करना या ऐसा चिंतन मन में लाना भी एक पवित्र सोच पर कुठाराघात करना है। सचमुच कितना पवित्र है आत्मशुद्धि का यह अनुष्ठान। कितना जागरूक प्रयत्न है कृत कर्मों की आत्मालोचन का।
संथारा किसी शान-शौकत, मान-प्रतिष्ठा, धन-वैभव के लिए नहीं किया जाता बल्कि यह आत्मकल्याण एवं मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है। मृत्यु को एक आदर्श परिणति देने का नाम है संथारा। आचार्य विनोबा भावे और वीर सावरकरजी जैसे लोगों ने भी जैन धर्म की इस साधना पद्धति को अपनाकर मृत्यु का वरण किया था। मेरी दृष्टि में स्वाभाविक मृत्यु से पूर्व की सभी मौतें आत्महत्या नहीं होती। जो लोग असंतोष, निराशा और दुर्भाग्य से घबराकर जीने की इच्छा होते हुए भी भली-भांति जी नहीं सकते अत: घोर निराशा में स्वयं को समाप्त कर देते हैं, वे आत्महंता होते हैं। लेकिन जो लक्ष्यपूर्ति की पूर्ण संतुष्टि से, आत्मकाम से, प्रसन्नता से अपना प्राण त्याग करते हैं वे ईश्वर के चरणों में आत्मनिवेदक कहे जाते हैं। और उनका इस तरह मृत्यु वरण करना ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण कहा जाता है। मृत्यु का इससे अच्छा और आदर्श स्वरूप दूसरा नहीं हो सकता। विवेकपूर्वक समाधि मृत्यु का वरण एक पवित्र एवं आध्यात्मिक अनुष्ठान है। आज के घोर भौतिकवादी एवं सुविधावादी युग में मुनि ताराचन्दजी की त्याग, संयम और अनशन की भावना एक विरल घटना बनती जा रही है, उन्होंने समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करने का निर्णय लेकर जैन धर्म के महान एवं पवित्र आदर्श को प्रतिष्ठापित करने का साहसपूर्ण उपक्रम किया है। निश्चित ही इस संथारे से दुनिया में भारत की आध्यात्मिक छवि को जो सम्मान मिल रहा है, उससे जैन धर्म और उसकी त्याग और संयम परंपरा को एक नया परिवेश एवं प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। किसी भी देश की माटी को प्रणम्य बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में संतों की अहं भूमिका होती है। धर्मनेता होते हुए भी मुनि ताराचन्दजी राष्ट्र की अनेक समस्याओं के प्रति जागरूक ही नहीं रहे हैं, अपितु समय-समय पर समस्याओं के समाधान के अनेक विकल्प भी प्रस्तुत करते रहे हैं। यही कारण है कि उनकी सांस-सांस में मानवीय मूल्यों के उत्थान की आहत सुनाई देती रही है, उनकी वाणी में लोकमंगल और सर्वकल्याण की भावना प्रतिध्वनित होती रही है, उन्होंने जीवन के बहुमूल्य क्षण अपाहिज मानवता की सेवा में समर्पित कर दिए। ऐसे दूरद्रष्टा और उदात्त महापुरुष का संथारा द्वारा मृत्यु को महोत्सव का स्वरूप प्रदान करना भी मानव कल्याण का ही उपक्रम है, ऐसे महामानव संतमनीषी के कर्तृत्व को उकेरना सूर्य को दीपक दिखाना होगा या मोम के दांतों से लोहे के चने चबाना। मुनि ताराचन्दजी ने जैन धर्म की सबसे प्राचीन आत्म उन्नयन की परम्परा को अपनाने का एक साहसिक कदम उठाते हुए जैन धर्म की आध्यात्मिक विरासत को सुरक्षित रखने का उपक्रम किया है एवं इसकी प्रेरणा दी है। जन-जन के घट-घट में मृत्यु की विलक्षण परम्परा का दीप प्रज्ज्वलित कर अंतर के पट खोलने का संदेश दिया हैं। जन्म और मृत्यु एक चक्र है, आदमी आता है, गुजर जाता है, आखिर क्यों? क्या मकसद है उसके आने-जाने और होने का। वह आकर जाता क्यों है? पुख्ता जमीन क्यों नहीं पकड़ लेता? क्या उसके इस तरह होने के पीछे कोई राज है? कुल मिलाकर मुनि ताराचन्दजी ने संथारा स्वीकार करके एक नया इतिहास रचा है। वे अपनी मृत्यु को इसी प्रकार धन्य करके अमरत्व की ओर गति कर रहे हैं।
शरीर को छोड़ने में ज्ञानी को न भय होता है और न ममत्व असल में आसक्ति या राग तमाम विपत्तियों की जड़ है और अनासक्ति जननी है मुक्ति की, शांति की, समता की। अनादि संसार में कोई भी ऐसा जीव नहीं है जो जन्म लेकर मरण को प्राप्त न हुआ हो। सभी का अपने-अपने सुनिश्चित समय में मरण अवश्य हुआ है। कोई भी विद्या, मणि, मंत्र, तंत्र, दिव्यशक्ति, औषध आदि मरण से बचा नहीं सकते। अपनी आयु के क्षय होने पर मरण होता ही है। कोई भी जीव यहां तक कि तीर्थंकर परमात्मा भी, अपनी आयु अन्य जीव को दे नहीं सकते और न उसकी आयु बढ़ा सकते हैं और न हर सकते हैं। अज्ञानी मरण को सुनिश्चित जानते हुए भी आत्महित के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ रहता है। जबकि ज्ञानी मरण को सुनिश्चित मानता है। वह जानता है कि जिस प्रकार वस्त्र और शरीर भिन्न हैं, उसी प्रकार शरीर और जीव भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए छूटते हुए शरीर को छोड़ने में ज्ञानी को न भय होता है और न ममत्व, अपितु उत्साह होता है। यही उत्साह संथारा की आधारभित्ति है और पुनर्जन्म या जन्म-जन्मांतर या उसकी शृंखला को मेटने या काटने की कला है, उस कला से साक्षात्कार करने का संकल्प लेकर मुनि ताराचन्दजी मृत्यु को महोत्सव का स्वरूप प्रदान कर रहे हंै। जैन धर्म के मृत्यु महोत्सव एवं कलात्मक मृत्यु को समझना न केवल जैन धर्मावलम्बियों के लिये बल्कि आम जनता के लिये उपयोगी है। यह समझना भूल है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का अन्न-जल जानबूझकर या जबरदस्ती बंद करा दिया जाता है। संथारा स्व-प्रेरणा से लिया गया निर्णय है। जैन धर्म-दर्शन-शास्त्रों के विद्वानों का मानना है कि आज के दौर की तरह वेंटिलेटर पर दुनिया से दूर रहकर और मुंह मोड़कर मौत का इंतजार करने से बेहतर है संथारा द्वारा मृत्यु का सम्मापूर्वक वरण करना। यहाँ धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को पूरे आदर और समझदारी के साथ जीने की कला को आत्मसात किया जाता है। मुनिश्री ताराचन्दजी ने भगवान महावीर द्वारा निरूपित अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह का पाठ दुनिया को पढ़ाने का बीड़ा उठाया था बल्कि अब अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अहर्निश संलग्न रहते हुए अपनी जीवनयात्रा को समाधिमरण के माध्यम से मोक्ष की ओर अग्रसर कर दी है। वे अपने जन्म से ही नहीं बल्कि मृत्यु से भी संसार को उपकृत कर रहे हंै। ऐसे महामानव को प्रणाम।
पुजा राजपूत