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साधारण से दिखने वाले महान वैज्ञानिक थे अल्बर्ट आइंस्टीन

1914 से 1932 तक बर्लिन में रहने के दौरान हिटलर की यहूदियों के प्रति घृणा को समय रहते भांप कर अल्बर्ट आइंस्टीन अमेरिका चले गये। अल्बर्ट आइंस्टीन (जर्मन उच्चारण आइनश्टाइन) का जन्म, 14 मार्च 1879 को तत्कालीन जर्मन साम्राज्य के उल्म शहर में रहने वाले एक यहूदी परिवार में हुआ था। उल्म आज जर्मनी के जिस बाडेन- व्यूर्टेमबेर्ग राज्य में पड़ता है, वह उस समय जर्मन साम्राज्य की व्यूर्टेमबेर्ग राजशाही का शहर हुआ करता था। लेकिन अल्बर्ट आइंस्टीन का बचपन उल्म के बदले बवेरिया की राजधानी म्यूनिख में बीता। परिवार उनके जन्म के एक ही वर्ष बाद म्यूनिख में रहने लगा था। अल्बर्ट आइंस्टीन होनहार बिरवान के होत चीकने पात वाली कहावत चरितार्थ करते थे। भाषाएं छोड़ कर हर विषय में, विशेषकर विज्ञान में वे बचपन से ही बहुत तेज थे। विज्ञान की किताबें पढ़-पढ़ कर स्कूली दिनों में ही अल्बर्ट आइंस्टीन सामान्य विज्ञान के अच्छे-खासे ज्ञाता बन गए थे। जर्मनी के अलावा वे उसके पड़ोसी देशों स्विट्जरलैंड और आॅस्ट्रिया में भी वहां के नागरिक बन कर रहे। 1914 से 1932 तक बर्लिन में रहने के दौरान हिटलर की यहूदियों के प्रति घृणा को समय रहते भांप कर अल्बर्ट आइंस्टीन अमेरिका चले गये। वहीं, 18 अप्रैल 1955 के दिन उन्होंने प्रिन्स्टन के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली।

शवपरीक्षक डॉक्टर ने आइंस्टीन की आंखों और मस्तिष्क को यह जानने के लिए अंत्येष्टि से पहले ही निकाल लिया कि उनके मस्तिष्क की बनावट में उनकी असाधारण प्रतिभा का कोई रहस्य तो नहीं छिपा है। उनके परिजनों ने मस्तिष्क के साथ इस प्रयोग की अनुमति दे दी थी। पर ऐसी कोई असाधारण संरचना उनके मस्तिष्क में नहीं मिली। मस्तिष्क का एक बड़ा हिस्सा शिकागो के नेशनल म्यूजिÞयम आॅफ हेल्थ ऐन्ड मेडिसिन (राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं औषधि संग्राहलय) में आज भी देखा जा सकता है।

1905 : एक साथ कई उपलब्धियों का स्वर्णिम वर्ष —– अल्बर्ट आइंस्टीन को 20वीं सदी का ही नहीं, बल्कि अब तक के सारे इतिहास का सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जाता है। 1905 एक साथ उनकी कई उपलब्धियों का स्वर्णिम वर्ष था। उसी वर्ष उनके सर्वप्रसिद्ध सूत्र ए= ेूध् ऊर्जा= द्रव्यमान  प्रकाशगति घाते2) का जन्म हुआ था। सैद्धांतिक भौतिकी, विशेषकर प्रकाश के वैद्युतिक (इलेक्ट्रिकल) प्रभाव के नियमों संबंधी उनकी खोज के लिए उन्हें 1921 का नोबेल पुरस्कार मिला। 17 मार्च 1905 को प्रकाशित यह खोज अल्बर्ट आइंस्टीन ने स्विट्जरलैंड की राजधानी बेर्न के पेटेंट कार्यालय में एक प्रौद्योगिक-सहायक के तौर पर 1905 में ही की थी। उसी वर्ष आइंस्टीन ने 30 जून को गतिशील पिंडों की वैद्युतिक गत्यात्मकता के बारे में भी एक अध्ययन प्रकाशित किया था। ड़ॉक्टर की उपाधि पाने के लिए उसी वर्ष 20 जुलाई के दिन आणविक आयाम का एक नया निर्धारण नाम से अपना शोधप्रबंध (थीसिस) उन्होंने ज्यूरिच विश्वविद्यालय को समर्पित किया था। उस समय उनकी उम्र 26 वर्ष थी। 15 जनवरी 1906 को उन्हें ड़ॉक्टर की उपाधि मिल भी गयी।

सापेक्षता सिद्धांत —–अल्बर्ट आइंस्टीन के नाम को जिस चीज ने अमर बना दिया, वह था उनका सापेक्षता सिद्धांत (थ्योरी आॅफ रिलेटिविटी)। उन्होंने गति के स्वरूप का अध्ययन किया और कहा कि गति एक सापेक्ष अवस्था है। आइंस्टीन के मुताबिक ब्रह्मांड में ऐसा कोई स्थिर प्रमाण नहीं है, जिसके द्वारा मनुष्य पृथ्वी की निरपेक्ष गति या किसी प्रणाली का निश्चय कर सके। गति का अनुमान हमेशा किसी दूसरी वस्तु को संदर्भ बना कर उसकी अपेक्षा स्थिति-परिवर्तन की मात्रा के आधार पर ही लगाया जा सकता है। 1907 में प्रतिपादित उनके इस सिद्धांत को सापेक्षता का विशिष्ट सिद्धांत कहा जाने लगा। आइंस्टीन का कहना था कि सापेक्षता के इस विशिष्ट सिद्धांत को प्रकाशित करने के बाद एक दिन उनके दिमाग में एक नया ज्ञानप्रकाश चमका। उनके शब्दों में मैं बेर्न के पेटेंट कार्यालय में आरामकुर्सी पर बैठा हुआ था। तभी मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा, यदि कोई व्यक्ति बिना किसी अवरोध के ऊपर से नीचे गिर रहा हो तो वह अपने आप को भारहीन अनुभव करेगा। मैं भौचक्का रह गया। इस साधारण-से विचार ने मुझे झकझोर दिया। वह मुझे उसी समय से गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की ओर धकेलने लगा।

गुरुत्वाकर्षण प्रभाव ——-इस छोटे-से विचार पर कई वर्षों के चिंतन-मनन और गणीतीय समीकरणों के आधार पर 1916 में आइंस्टीन ने एक नई थ्योरी दी। उन्होंने कहा कि ब्रहमांड में किसी वस्तु को खी़ंचने वाला जो गुरुत्वाकर्षण प्रभाव देखा जाता है, उसका असली कारण यह है कि हर वस्तु अपने द्रव्यमान (सरल भाषा में भार) और आकार के अनुसार अपने आस- पास के दिक्-काल (स्पेस-टाइम) में मरोड़ पैदा कर देती है। वैसे तो हर वस्तु और हर वस्तु की गति दिक्- काल में यह बदलाव लाती है, लेकिन बड़ी और भारी वस्तुएं तथा प्रकाश की गति के निकट पहुंचती गतियां कहीं बड़े बदलाव पैदा करती हैं। आइंस्टीन ने सामान्य सापेक्षता के अपने इस क्रांतिकारी सिद्धांत में दिखाया कि वास्तव में दिक् के तीन और काल का एक मिलाकर ब्रह्माण्ड में चार आयामों वाला दिक्- काल है, जिसमें सारी वस्तुएं और सारी ऊजार्एं अवस्थित हैं। उनके मुताबिक समय का प्रवाह हर वस्तु के लिए एक जैसा हो, यह जरूरी नहीं है। आइंस्टीन का मानना था कि दिक्-काल को प्रभावित कर के उसे मरोड़ा, खींचा और सिकोड़ा भी जा सकता है। ब्रह्मांड में ऐसा निरंतर होता रहता है।

हिटलर की तानाशाही ——1932 में आइंस्टीन के अमेरिका चले जाने के बाद 1933 में जर्मनी पर हिटलर की तानाशाही शुरू हो गयी। 10 मई 1933 को उसके प्रचारमंत्री योजेफ गोएबेल्स ने हर प्रकार के यहूदी साहित्य की सार्वजनिक होली जलाने का अभियान छेड़ दिया। आइंस्टीन की लिखी पुस्तकों की भी होली जली। ह्यजर्मन राष्ट्र के शत्रुओंह्ण की एक सूची बनी, जिसमें उस व्यक्ति को पांच हजार डॉलर का पुरस्कार देने की घोषणा भी की गयी, जो आइंस्टीन की हत्या कर देगा। आइंस्टीन तब तक अमेरिका के प्रिन्स्टन शहर में बस गये थे। वहां वे गुरुत्वाकर्षण वाले अपने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत के नियमों तथा विद्युत-चुम्बकत्व के नियमों के बीच मेल बैठाते हुए एक ह्यसमग्र क्षेत्र सिद्धांतह्ण (यूनिफाइड फील्ड थ्योरी) का प्रतिपादन करने में जुट गये। इसके लिए वे किसी ह्यब्रह्मसूत्रह्ण जैसे एक ऐसे गणितीय समीकरण पर पहुंचना चाहते थे, जो दोनों को एक सूत्र में पिरोते हुए ब्रहमांड की सभी शक्तियों और अवस्थाओं की व्याख्या करने का मूलाधार बन सके। वे मृत्युपर्यंत इस पर काम करते रहे, पर न तो उन्हें सफलता मिल पायी और न आज तक कोई दूसरा वैज्ञानिक यह काम कर पाया है।

ब्रह्मसूत्र की खोज ——- समग्र क्षेत्र सिद्धांत वाला ब्रह्मसूत्र खोजने का काम अल्बर्ट आइंस्टीन ने वास्तव में 1930 में बर्लिन में ही शुरू कर दिया था। उस समय उन्होंने इस बारे में आठ पृष्ठों का एक लेख भी लिखा था, जिसे उन्होंने कभी प्रकाशित नहीं किया। इस लेख के अब तक सात पृष्ठ मिल चुके थे, एक पृष्ठ नहीं मिल रहा था। आज उनके जन्म की 140वीं वर्षगांठ से कुछ ही दिन पहले यह खोया हुआ पृष्ठ भी मिल गया है। इसराइल में जेरूसलम के हिब्रू विश्वविद्यालय ने 13 मार्च को बताया कि उसने आइंस्टीन से संबंधित दस्तावेजों का एक संग्रह हाल ही में खरीदा है। समग्र क्षेत्र सिद्धांत वाले उनके लेख का खोया हुआ पृष्ठ, दो ही सप्ताह पहले प्रप्त हुए इसी संग्रह में मिला है। अपने लेख में आइंस्टीन ने हस्तलिखित समीकरणों ओर रेखाचित्रों का खूब प्रयोग किया है। इस संग्रह में 110 पृष्ठों के बराबर सामग्री है। 1935 में उनके पुत्र हांस अल्बर्ट के नाम लिखा एक पत्र भी है। इस पत्र में उन्होंने जर्मनी में हिटलर की नाजी पार्टी के शासन को लेकर अपनी चिंताएं भी व्यक्त की हैं। एक दूसरा पत्र भी है, जो आइंस्टीन ने स्विट्जरलैंड में रहने वाले अपने एक इतालवी इंजीनियर-मित्र को लिखा था।

पुत्र के नाम पत्र

आइंस्टीन की पहली पत्नी मिलेवा मारिच सर्बिया की थीं। दोनों बेर्न में अपनी पढ़ाई के दिनों में एक-दूसरे से परिचित हुए थे। उनसे उनके दो पुत्र थे हांस अल्बर्ट और एदुआर्द। शादी से पहले की दोनों की एक बेटी भी थी लीजरिल। लेकिन उसके बारे में दोनों ने चुप्पी साध रखी थी, इसलिए इससे अधिक कुछ पता नहीं है। पुत्र हांस अल्बर्ट के नाम पत्र में जर्मन भाषा में आइंस्टीन ने लिखा था, प्रिन्स्टन, 11 जनवरी 1935। मैं गणित रूपी राक्षस के पंजे में इस बुरी तरह जकड़ा हुआ हूं कि किसी को निजी चिट्ठी लिख ही नहीं पाता। मैं ठीक हूं, दीन-दुनिया से विमुख हो कर काम में व्यस्त रहता हूं। निकट भविष्य में मैं यूरोप जाने की नहीं सोच रहा, क्योंकि मैं वहां हो सकने वाली परेशानियों को झेलने के सक्षम नहीं हूं। वैसे भी, एक बूढ़ा बालक होने के नाते मुझे सबसे परे रहने का अधिकार भी तो है ही।

अमेरिकी संग्रहकर्ता से खरीदा

जेरूसलेम के हिब्रू विश्वविद्यालय में आइनश्टइन से संबंधित लेखागार के परामर्शदाता हानोख गूटफ्रौएन्ड ने मीडिया को बताया कि इस संग्रह के अधिकांश दस्तावेज शोधकों को फोटोकॉपी या नकलों के रूप में पहले से ज्ञात रहे हैं। यह बात अलग है कि कुछ कॉपियां अच्छी थीं और कुछ खराब थीं। नया प्राप्त संग्रह अब तक एक अमेरिकी संग्रहकर्ता के पास था। समग्र क्षेत्र सिद्धांत वाले उनके लेख में शब्द बहुत कम हैं, गणित के सूत्रों और समीकरणों की भरमार है। यह नहीं बताया गया कि इस संग्रह को पाने के लिए कितना पैसा देना पड़ा है। अल्बर्ट आइंस्टीन अपने समय में संसार के सबसे प्रतिष्ठित और प्रशंसित यहूदी थे, पर वे किसी ऊंचे पद के भूखे कभी नहीं थे। 1948 में जब इजरायल की एक यहूदी देश के रूप में स्थापना हुई, तो उनके सामने इसका राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव भी रखा गया था। उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। इसके बदले अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा कि पत्रों, लेखों, पांडुलिपियों इत्यादि के रूप में उनकी सारी दस्तावेजी विरासतों की नकलें, न कि मूल प्रतियां, जेरुसलम के हिब्रू विश्वविद्यालय को मिलनी चाहिए। इन दस्तावेजों से पता चलता है कि अमेरिका पहुंचने के बाद जर्मनी में रह गये अपने संबंधियों और परिजनों को वे न केवल पत्र लिखा करते थे, उन्हें जर्मनी से बाहर निकलने में सहायता देने का भी प्रयास करते थे।

बहन के नाम पत्र 30 हजार यूरो में नीलाम हुआ

हिटलर के सत्ता में आने से 10 साल पहले ही आइंस्टीन ने भांप लिया था जर्मनी अपने यहूदियों के लिए कितना बड़ा अभिशाप बन सकता है। अपनी बहन माया के नाम 1922 में लिखे उनके ऐसे ही एक पत्र की जब नीलामी हुई, तो वह 30 हजार यूरो में बिका। इस पत्र में एक जगह उन्होंने लिखा है, यहूदियों से घृणा करने वाले अपने जर्मन सहकर्मियों के बीच मैं तो ठीक-ठाक ही हूं। यहां बाहर कोई नहीं जानता कि मैं कौन हूं। यह पत्र संभवत: जर्मनी के ही कील नगर से लिखा गया था। उन दिनों आइंस्टीन बर्लिन के सम्राट विलहेल्म इंस्टीट्यूट में भौतिकशास्त्र के प्रोफेसर थे। उनके पत्र से यही पता चलता है कि अति उच्च शिक्षा प्राप्त जर्मन भी, हिटलर के आने से पहले ही यहूदियों से कितनी घृणा करने लगे थे। उनके प्रयासों से उनकी बहन माया भी 1939 में प्रिन्स्टन पहुंच गईं, पर नाजिÞयों ने उनके पति को नहीं जाने दिया। माया 1951 में अपनी मृत्यु तक उन्हीं के साथ रह रही थी।

अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम पत्र

दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने से कुछ ही दिन पहले, अगस्त 1939 में, आइंस्टीन ने अमेरिका में रह रहे हंगेरियाई परमाणु वैज्ञानिक लेओ जिÞलार्द के कहने में आ कर एक पत्र पर दस्तखत कर दिए। यह पत्र अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रÞैंकलिन रूजवेल्ट के नाम लिखा गया था। इसमें रूजवेल्ट से कहा गया था कि नाजी जर्मनी एक बहुत ही विनाशकारी नये प्रकार का बम बना रहा है या संभवत: बना चुका है। अमेरिकी गुप्तचर सूचनाएं भी कुछ इसी प्रकार की थीं, इसलिए अमेरिकी परमाणु बम बनाने की मैनहटन परियोजना को हरी झंडी दिखा दी गयी। अमेरिका के पहले दोनों बम 6 और 9 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहर पर गिरे। आइंस्टीन को इससे काफी आघात पहुंचा। अपने एक पुराने मित्र लाइनस पॉलिंग को 16 नवंबर 1954 को लिखे अपने एक पत्र में खेद प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा, मैं अपने जीवन में तब एक बड़ी गलती कर बैठा, जब मैंने राष्ट्रपति रूजवेल्ट को परमाणु बम बनाने की सलाह देने वाले पत्र पर अपने हस्ताक्षर कर दिये, हलांकि इसके पीछे यह औचित्य भी था कि जर्मन एक न एक दिन उसे बनाते।

निरस्त्रीकरण का आह्वान इसी कारण अपने अंतिम दिनों में आइंस्टीन ने 10 अन्य बहुत प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के साथ मिल कर, 11 अप्रैल 1955 को, रसेल-आइंस्टीन मेनीफेस्टो कहलाने वाले एक आह्वान पर हस्ताक्षर किए। इसमें मानवजाति को निरस्त्रीकरण के प्रति संवेदनशील बनाने का आग्रह किया गया था। दो ही दिन बाद, जब वे इसराइल के स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में एक भाषण लिख रहे थे, उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। 15 अ़प्रैल को उन्हें प्रिन्सटन के अस्पताल में भर्ती किया गया। 18 अप्रैल को 76 वर्ष की अवस्था में वे दुनिया से चलबसे। शवपरीक्षक डॉक्टर ने आइंस्टीन की आंखों और मस्तिष्क को यह जानने के लिए अंत्येष्टि से पहले ही निकाल लिया कि उनके मस्तिष्क की बनावट में उनकी असाधारण प्रतिभा का कोई रहस्य तो नहीं छिपा है। उनके परिजनों ने मस्तिष्क के साथ इस प्रयोग की अनुमति दे दी थी। पर ऐसी कोई असाधारण संरचना उनके मस्तिष्क में नहीं मिली। मस्तिष्क का एक बड़ा हिस्सा शिकागो के नेशनल म्यूजिÞयम आॅफ हेल्थ ऐन्ड मेडिसिन (राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं औषधि संग्राहलय) में आज भी देखा जा सकता है।