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वीरता, शौर्य व पराक्रम के धनी हिन्दुआ सूर्य महाराणा प्रताप

भारतीय इतिहास में वीरता, शौर्य, त्याग, पराक्रम और दृढ प्रण के लिए प्रसिद्ध महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया का जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवन्ताबाई के घर ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1540 रविवार को हुआ था। अशोक प्रवृद्ध इतिहासकारों के अनुसार पाली के सुविख्यात ठाकुर अखेराज सोनगरा की कन्या जयवन्ताबाई ने पाली में विक्रम संवत 1597 ज्येष्ठ सुदी 3 रविवार को सूर्योदय से 47 घड़ी 13 पल गए एक देदीप्यमान बालक को जन्म दिया, जो बाद में हिन्दुआ सूर्य महाराणा प्रताप के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुए। प्रताप का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब उनके पिता उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे। कुम्भलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर के शक्तिशाली राठौड़ी राजा राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत में सबसे शक्तिसम्पन्न थे, तथा जयवन्ता बाई के पिता एवं पाली के शाषक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था। इस कारण पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था और रणबंका राठौड़ो की कमध्व्ज सेना के समक्ष अकबर की शक्ति बहुत कम थी। लड़की का पहला पुत्र अपने पीहर में होने की स्थानीय परम्परा होने के कारण जयवन्ता बाई को पाली भेजा गया। विक्रम संवत ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ। प्रताप के जन्म का शुभ समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने प्रयाण प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध में बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त कर चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया। प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह ने युद्ध की एक नई पद्धति- छापामार युद्धप्रणाली की इजाद की थी, हालांकि युद्ध के भारतीय नियमों से बंधे हुए उन्होंने इसका प्रयोग कभी नहीं किया। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के मध्य भीलों के साथ युद्ध कला सीखते हुए व्यतीत हुआ था। भीलों के मध्य अपने पुत्र को कीका कहकर पुकारने की परम्परा होने के कारण भील महाराणा को कीका सम्बोधन से पुकारते थे। रानी भटियाणी के नाम से प्रसिद्ध राणा उदयसिंह की दूसरी रानी धीरबाई अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी, लेकिन प्रताप को राज्य का उतराधिकारी घोषित कर दिया गया। इसके विरोध स्वरूप जगमाल अकबर के खेमे में चला गया। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ईस्वी में ही कुम्भलदुर्ग में में जोधपुर के राठौड़ शासक राव चन्द्रसेन की उपस्थिति में हुआ। राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ग्यारह शादियाँ की थी। अकबर बिना युद्ध के ही प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था, इसलिए अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए समय- समय पर चार राजदूत नियुक्त किए। सितम्बर 1572 ईस्वी में जलाल खाँ, 1573 ईस्वी में मानसिंह, सितम्बर, 1573 ईस्वी में भगवान दास तथा दिसम्बर,1573 ईस्वी में राजा टोडरमल प्रताप को समझाने के लिए प्रताप के पास पहुँचे, लेकिन प्रताप ने चारों को ही निराश किया, और उन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया। भील सेना के सरदार, पानरवा के ठाकुर राणा पूंजा सोलंकी थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे। युद्ध के लिए राजस्थान के गोगुन्दा के समीप हल्दीघाटी में एक संकरे पहाड़ी दर्रे में महाराणा प्रताप लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल के साथ मैदान में उतार डटे हुए थे। मुगलों के नेतृत्वकर्ता आमेर के राजा मान सिंह ने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद महाराणा प्रताप जख्मी हो गये तो अपने कुछ लोगों के सहयोग से वे पहाड़ियों से निकल चले। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी, परन्तु मुगल सेना ने अपने 3500-7800 लोगों को खो दिया था। 350 अन्य घायल हो गए थे। इस युद्ध में मेवाड़ के महाराणा प्रताप विजय हुए थे। युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी थी। इस युद्ध में शत्रु सेना से घिरने के बाद बींदा के झालामान सिंह ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की और महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने की सलाह दी। वहीं ग्वालियर नरेश राजा रामशाह तोमर भी अपने तीन पुत्रों कुँवर शालीवाहन, कुँवर भवानी और कुँवर प्रताप सिंह तथा पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। युद्ध में महाराणा का प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। इस पर शक्ति सिंह ने अपना अश्व देकर महाराणा को युद्धभूमि से निकलने में मदद की। युद्ध में राजपूतों ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे। आमने- सामने लड़े गए युद्ध में महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गई थी। इस युद्ध के बाद में भी मेवाड़ को जीतने के लिए अकबर ने सभी प्रयास किये, परन्तु वह असफल रहा। हल्दीघाटी के युद्ध तथा देवर और चप्पली की लड़ाई में विजय के कारण महाराणा प्रताप को सर्वश्रेष्ठ राजपूत राजा और उनकी बहादुरी, पराक्रम, चारित्र्य, धर्मनिष्ठा, त्याग के लिए जाना जाने लगा। मुगलों के सफल प्रतिरोध के बाद उन्हें हिन्दुशिरोमणी माना गया। संग्राम के दिनों में 24,000 से अधिक सैनिकों के 12 वर्ष तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हो गया। महाराणा प्रताप अकबर से कभी नहीं हारे, बल्कि उसे एवं उसके सेनापतियों को धूल चटाई। हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप से पराजित होने के बाद स्वयं अकबर ने जून से दिसम्बर 1576 तक तीन बार विशाल सेना के साथ महाराणा पर आक्रमण किए, परन्तु महाराणा को खोज नहीं पाया, बल्कि महाराणा के जाल में फँसकर पानी भोजन के अभाव में सेना का विनाश करवा बैठा। थक हारकर अकबर बांसवाड़ा होकर मालवा चला गया। पूरे सात माह मेवाड़ में रहने के बाद भी हाथ मलता अरब चला गया। उसने शाहबाज खान के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध तीन बार सेना भेजी गई परन्तु असफल रहा। उसके बाद अब्दुल रहीम खानखाना के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध सेना भिजवाई गई। वह भी पीट-पीटाकर लौट गया। 9 वर्ष तक निरन्तर अकबर पूरी शक्ति से महाराणा के विरुद्ध आक्रमण करता रहा। नुकसान उठाता रहा, और अन्त में थक हार कर उसने मेवाड़ की और देखना ही छोड़ दिया। परन्तु अकबर को महान बतलाने वाले इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप के वास्तविक जीवन गाथा के साथ अन्याय करते हुए उनके जीवन के चारित्रिक सत्य को दबाकर अकबर को महान सिद्ध और महाराणा प्रताप को उससे कमतर साबित करने की हर सम्भव कोशिश की। जिसके कारण महाराणा प्रताप के जीवन से सम्बन्धित अनेक भ्रांतियां इतिहास में फैली दिखाई देती हैं। महाराणा प्रताप के जीवन से सम्बन्धित उपलब्ध दस्तावेजों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ऐसा दुर्दिन महाराणा प्रताप के जीवन में कभी नहीं आया कि उन्हें घास की रोटी खानी पड़ी और अकबर को सन्धि के लिए पत्र लिखना पड़ा हो। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर प्रताप के प्रभुत्व वाले राज्य क्षेत्र में कोई परिवर्तन न कर सका। इस प्रकार महाराणा प्रताप समय की लम्बी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और उसके बाद का समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अन्त 1585 ईस्वी में हुआ। इन दिनों में ही महाराणा प्रताप ने सुंगा पहाड़ पर एक बावड़ी का निर्माण करवाकर सुन्दर बगीचा लगवाया। महाराणा की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावत, 15000 अश्वरोही, 100 हाथी, 20000 पैदल और 100 वाजित्र थे। इतनी बड़ी सेना को खाद्य सहित सभी व्यवस्थाएँ महाराणा प्रताप करते थे। फिर ऐसी घटना कैसे हो सकती है कि महाराणा के परिवार को घास की रोटी खानी पड़ी। अपने उतरार्द्ध के बारह वर्ष सम्पूर्ण मेवाड़ पर सुशासन स्थापित करते हुए उन्होंने उन्नत जीवन दिया, अपने राज्य की सुख-सुविधा में वे तन्मयतापूर्वक जुटे रहे, परन्तु दुर्भाग्य से 19 जनवरी 1597 को अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई।