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युद्ध नहीं, शांति का उजाला हो

भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध की संभावनाएं निरन्तर बनी हुई है। दोनों राष्ट्र एक दूसरे को युद्ध के लिये चुनौती दे रहे हैं। दोनों कसमें खाकर युद्ध के लिये आमने सामने खड़े हैं। बात केवल भारत और पाकिस्तान की ही नहीं है, दुनिया के अनेक राष्ट्र युद्ध के लिये तत्पर है, यह जानते हुए भी कि युद्ध तबाही के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। वे युद्ध करना चाहते हैं। ऐसे में, हमें यह विचार करने की जरूरत है कि हम आखिर युद्ध क्यों चाहते हैं? युद्ध किससे करना चाहते हैं? युद्ध से हम क्या हासिल कर पायेंगे? विश्व अणु-परमाणु हथियारों के ढेर पर खड़ा है। दुनिया हिंसा, आयुधों एवं आतंकवाद की लपटों से झुलस रही है। सत्ता का मद, अर्थ प्रधान दृष्टिकोण, सुविधावाद मनोवृत्ति, उपभोक्ता संस्कृति, साम्प्रदायिक कट्टरता, जातीय विद्वेष आदि हथियारों ने मानवता की काया में न जाने कितने गहरे घाव किये हैं, क्रूरता के बीज, आतंकवाद और आणविक आयुधों की फसल उगा रहे हैं।

आज हिंसा के प्रशिक्षण एवं प्रयोग की व्यापक व्यवस्थाएं हैं। वे चाहे सैनिक एवं सामरिक प्रशिक्षण के रूप में हो या आतंकवाद के प्रशिक्षण के रूप में। हिंसक एवं आतंकी शक्तियां संगठित होकर नेटवर्क के लक्ष्य से सक्रिय है। अहिंसक शक्तियां न संगठित है, न सक्रिय। यह सर्वाधिक चिन्तनीय स्थिति समूची दुनिया के लिये एक संकट बनी हुई है। युद्ध, संघर्ष, आतंकवाद- ये सब क्रूरता के ही पर्याय है, क्रूरता के ही उत्पाद है। इसका एकमात्र विकल्प एवं समाधान अहिंसा है। विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि न चाहते हुए भी हिंसा एवं युद्ध पर तो व्यापक प्रयोग एवं प्रशिक्षण हो रहे हैं, जबकि आवश्यकता अहिंसा के प्रयोग एवं प्रशिक्षण की है। भारत और पाकिस्तान दोनों ही देश युद्ध के लिए बड़ी राशि खर्च करते हैं। भारत सरकार का वार्षिक बजट 27 लाख करोड़ रुपयों का है, जिसमें 3 लाख करोड़ रुपयों का रक्षा बजट है। पाकिस्तान सरकार का वार्षिक बजट 5 लाख करोड के आसपास है, जिसमें 1.10 लाख करोड़ रुपये रक्षा बजट है। इसके अलावा दोनों देश युद्ध सामग्री के लिये अतिरिक्त खर्च करते हैं। व्यवस्था पर होनेवाले कुछ खर्चों को भी इसमें जोड़ा जा सकता है।

वह इतनी बड़ी राशि है कि अगर दोनों देश गरीबी, भूखमरी, कुपोषण और बेरोजगारी से लड़ते, तो अबतक इनपर विजय प्राप्त कर चुके होते और खुद को समृद्ध बना चुके होते। मनुष्य के सामने समस्याएं क्या हैं? रोटी, कपड़ा, शिक्षा और चिकित्सा-ये मनुष्य की न्यूनतम आवश्यकताएं हैं। इनकी पूर्ति के लिए अर्थ की अपेक्षा रहती है। युद्ध का इतिहास यही बताता है कि उसने हुकूमतों को मजबूत किया है और साम्राज्यवाद को फैलाया है। लोगों के श्रम का शोषण, प्राकृतिक संसाधनों की लूट या युद्ध सामग्री का व्यापार बढ़ाने के लिये ही युद्ध किया जाता रहा है। युद्ध ने समाज और देश को हमेशा तबाही ही दी है। युद्ध हमेशा एक साजिश के तहत लादा जाता रहा है। युद्ध आम व्यक्ति की मूलभूत जरूरतों यानी रोजगार, आर्थिक संसाधन, शिक्षा, चिकित्सा की कटौती करके ही अंजाम दिया जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य क्या करे? उसे दिन-रात चिन्ता सताती है? चिन्ता उसके स्वास्थ्य को चैपट कर देती है। अस्वास्थ्य और अभाव अहम समस्या बनकर खड़े हो जाते हैं। यह समस्या बहुत लोगों के सामने है। पर आज इससे भी बड़ी समस्या है आतंकवाद की। यह एक ऐसी समस्या है जो आगे से आगे उलझती जा रही है। इसे सुलझाने के सारे प्रयास असफल हो रहे हैं। कुछ लोगों की यह धारणा बन गयी है कि यह समस्या मनुष्य जाति की जिंदगी का अपरिहार्य हिस्सा बन गयी है। इसे सुलझाना संभव नहीं है। हमारा अभिमत यह है कि संसार में कोई भी समस्या ऐसी नहीं हो सकती, जिसका कोई समाधान न हो। शर्त एक ही है कि समस्या से जुड़े हुए सभी पक्ष समाधान पाने के लिए तैयार हों। हमारी चिन्ता राजनीतिक दृष्टि से नहीं, मानवीय दृष्टिकोण से प्रेरित है। हमारी दृष्टि में इस समस्या का समाधान है अहिंसा। काश! मनुष्य अहिंसा की उपयोगिता एवं अनिवार्यता को समझे और उसे जीवन व्यवहार के साथ जोड़े।
कैसे विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि पाकिस्तान में न केवल अर्थव्यवस्था चैपट है बल्कि आम व्यक्ति के लिये जीवन निर्वाह करना जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। रोजाना के खर्च करने के लिए भी उनके पास धन नहीं है। इन जटिल हालातों के बावजूद पाकिस्तान सरकार जनहित की योजनाओं में कटौती करके भी या कर्ज की भीख मांग कर भी युद्ध के लिये तत्पर है, भारत से युद्ध लड़ना चाहता है। स्थिति भले ही भारत की आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो, लेकिन अनेक मोर्चों पर भारत भी अनेक संकटों से घिरा है। यहां भी 90 प्रतिशत आत्महत्याएं गरीबी, अशिक्षा और असुरक्षित रोजगार के कारण होती हैं। प्रतिदिन 34 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसान परिवारों मे प्रतिदिन 174 लोग आत्महत्या करते हैं। हर तीसरा बच्चा कुपोषित है। आधी आबादी गरीबी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर है। बेरोजगारों की कतारें लगी हैं। महिलाओं पर अत्याचार बढ़ रहे हैं। केवल धन जुटाने के लिये समाज में शराब और नशा परोसा जा रहा है। देश में चारों ओर हिंसा व्याप्त है। किसानों की जमीन छीनी जा रही है। लाखों आदिवासियों से जल, जंगल और जमीन का अधिकार छीना जा रहा है। किसानों को मेहनत का मूल्य देने के लिये धन नहीं है। सारा धन चंद धनवानों के पास पहुंच रहा है। जम्मू – कश्मीर प्रकृति से एक समृद्ध प्रदेश है। भारत और पाकिस्तान, दोनों वहां हिंसा करते आये हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि पाकिस्तान वहां अराजकता फैलाने या उकसाने की नीयत से हिंसक गतिविधियों को अंजाम देता है, वहीं भारत उसे अपना बनाये रखने के लिये हिंसा करता है। वहां की जनता हिंसा से मुक्ति चाहती है। लेकिन इसके लिए उन्होंने भी हिंसा का ही रास्ता अपनाया है। दुनिया की साम्राज्यवादी ताकतें कट्टरपंथियों के माध्यम से इन तीनों का इस्तेमाल प्राकृतिक दृष्टि से समृद्ध 1.25 करोड आबादी वाले इस प्रदेश को तबाह करने और भारत व पाकिस्तान की जनता को लूटने के लिए कर रही है।
संकुचित राष्ट्रवाद को उकसाकर युद्ध के नाम पर पनप रहा नया नजरिया न केवल घातक है बल्कि मानव अस्तित्व पर खतरे का एक गंभीर संकेत भी है। साम्राज्यवाद का आधार हिंसा है। हमें समझना होगा कि हिंसा का जवाब हिंसा से देकर साम्राज्यवाद को परास्त नहीं किया जा सकता। साम्राज्यवाद से मुक्ति अहिंसा से ही संभव है, क्योंकि साम्राज्यवाद की पीठ पर सवार पूंजीवाद ने जहां एक ओर अमीरी को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर गरीबी भी बढ़ती गई है। यह अमीरी और गरीबी का फासला कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है जिसके परिणामों के रूप में हम आतंकवाद को, सांप्रदायिकता को, प्रांतीयता को देख सकते हैं, जिनकी निष्पत्तियां समाज में हिंसा, नफरत, द्वेष, लोभ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, रिश्ते में दरारें आदि के रूप में देख सकते हैं। सर्वाधिक प्रभाव पर्यावरणीय असंतुलन एवं प्रदूषण के रूप में उभरा है। चंद हाथों में सिमटी समृद्धि की वजह से बड़े और तथाकथित संपन्न लोग एवं राष्ट्र ही नहीं बल्कि दुनिया की बड़ी महाशक्तियों का एक बड़ा तबका मानवीयता से शून्य अपसंस्कृति का शिकार हो गया है।

आज सिर्फ युद्ध का वातावरण बनाने का समय नहीं है, समस्याओं की तपती आग को बुझाने के लिये अहिंसा एवं शांति रूपी पानी ढूंढ़ना है। इसके लिये ईमानदार प्रयत्नों को परिणामों तक पहुंचाना है। बदलाव के नाम पर ऐसी सीख को साख बनाना है जिसे जानने, सुनने और जी लेने के बाद लगे कि इसके अभाव में ही हम गलत थे। युद्ध एवं आतंक की इस आंधी को शांत करने की इस लड़ाई में अब हमें शस्त्र नहीं, संकल्प चाहिए। स्वप्न नहीं, सच चाहिए। कल्पना नहीं, कर्म चाहिए। प्रतीक्षा नहीं, परिणाम चाहिए। तभी चिन्तन, निर्णय और क्रियान्विति की प्रक्रिया में दूरियां मिटेंगी, शांति का उजाला होगा, सबके अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होगा। ?
आज सिर्फ युद्ध का वातावरण बनाने का समय नहीं है, समस्याओं की तपती आग को बुझाने के लिये अहिंसा एवं शांति रूपी पानी ढूंढ़ना है। इसके लिये ईमानदार प्रयत्नों को परिणामों तक पहुंचाना है। बदलाव के नाम पर ऐसी सीख को साख बनाना है जिसे जानने, सुनने और जी लेने के बाद लगे कि इसके अभाव में ही हम गलत थे।