General

‘मूक’ समाज को आवाज देकर ही उनके ‘नायक’ बने थे बाबा साहब आंबेडकर

अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान  के कुदरती तत्वों और मानव  समाज को एक दर्शक के  नजरिए से फिल्म की तरह  देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफी की पनाहगाह  के सिवा कुछ नहीं दिखेगा। बाबा साहेब  भीमराव आंबेडकर ने आज से 100 वर्ष पूर्व  31 जनवरी 1920 को अपने अखबार  मूकनायक के पहले संस्करण के लिए जो  लेख लिखा था, यह उसका पहला वाक्य है।  अपनी पुस्तक पत्रकारिता के युग निमार्ता:  भीमराव आंबेडकर में लेखक सूर्यनारायण  रणसुभे ने इसलिए कहा भी है- कि जानेअ  नजाने बाबा साहेब ने इसी दिन से दीन-  दलित, शोषित और हजारों वर्षों से उपेक्षित  मूक जनता के नायकत्व को स्वीकार किया  था। आज के मीडिया को कैसे देखा जाए?  यदि इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना है, तो  मूकनायक के माध्यम से इसे समझना बेहद  आसान है। इस संबंध में मूकनायक के  प्रवेशांक के संपादकीय में आंबेडकर ने जो  लिखा था, उस पर ध्यान देना बेहद आवश्यक  है। आंबेडकर लिखते हैं कि मुंबई जैसे इलाके  से निकलने वाले बहुत से समाचार पत्रों को  देखकर तो यही लगता है कि उनके बहुत से  पन्ने किसी जाति विशेष के हितों को देखने  वाले हैं।

प्रो. संजय द्विवेदी

उन्हें अन्य जाति के हितों की परवाह ही नहीं है।  कभी-कभी वे दूसरी जातियों के लिए अहितकारक  भी नजर आते हैं। ऐसे समाचार पत्र वालों को हमारा  यही इशारा है कि कोई भी जाति यदि अवनत होती  है, तो उसका असर दूसरी जातियों पर भी होता है।  समाज एक नाव की तरह है। जिस तरह से इंजन  वाली नाव से यात्रा करने वाले यदि जानबूझकर  दूसरों का नुकसान करें, तो अपने इस विनाशक  स्वभाव की वजह से उसे भी अंत में जल समाधि  लेनी ही पड़ती है। इसी तरह से एक जाति का  नुकसान करने से अप्रत्यक्ष नुकसान उस जाति का भी  होता है जो दूसरे का नुकसान करती है। बाबा साहेब  ने जो लिखा, उसको आज के दौर के मीडिया के  परिप्रेक्ष्य में देखें, तो स्थितियां करीब-करीब कुछ वैसी  ही दिखाई देती हैं। आज का मीडिया हमें कुछ उस  तरह ही काम करता दिखाई देता है, जिसको  पहचानते हुए बाबा साहेब ने मूकनायक की शुरूआत  की थी। इस समाचार पत्र के नाम में ही आंबेडकर  का व्यक्तित्व छिपा हुआ है। मेरा मानना है कि वे मूक  समाज को आवाज देकर ही उनके नायक बने। बाबा  साहेब ने कई मीडिया प्रकाशनों की शुरूआत की।  उनका संपादन किया। सलाहकार के तौर पर काम  किया और मालिक के तौर पर उनकी रखवाली की।  मूकनायक के प्रकाशन के समय बाबा साहेब की  आयु मात्र 29 वर्ष थी। और वे तीन वर्ष पूर्व ही यानी  1917 में अमेरिका से उच्च शिक्षा ग्रहण कर लौटे  थे। अक्सर लोग ये प्रश्न करते हैं कि कि एक उच्च  शिक्षित युवक ने अपना समाचार-पत्र मराठी भाषा में  क्यों प्रकाशित किया? वह अंग्रेजी भाषा में भी  समाचार-पत्र का प्रकाशन कर सकते थे। ऐसा करके  वह सवर्ण समाज के बीच प्रसिद्धि पा सकते थे  और अंग्रेज सरकार तक दलितों की स्थिति प्रभावी  ढंग से रख सकते थे। लेकिन बाबा साहेब ने  मूकनायक का प्रकाशन वर्षों के शोषण और  हीनभावना की ग्रंथि से ग्रसित दलित समाज के  आत्म-गौरव को जगाने के लिए किया गया था। जो  समाज शिक्षा से दूर था, जिसके लिए अपनी मातृभाषा  मराठी में लिखना और पढ़ना भी कठिन था, उनके  बीच जाकर अंग्रेजी मूकनायक आखिर क्या जागृति  लाता? इसलिए आंबेडकर ने मराठी भाषा में ही  समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। अगर हम उनकी  पहुंच की और उनके द्वारा चलाए गए सामाजिक  आंदोलनों की बात करें, तो बाबा साहेब अपने समय  में संभवत: सब से ज्यादा दौरा करने वाले नेता थे।  सबसे खास बात यह है कि उन्हें ये काम अकेले  अपने बूते ही करने पड़ते थे। न तो उन के पास  सामाजिक समर्थन था, न ही आंबेडकर को उस तरह  का आर्थिक सहयोग मिलता था, जैसा कांग्रेस पार्टी  को हासिल था। इसके विपरीत, आंबेडकर का  आंदोलन गरीब जनता का आंदोलन था। उनके  समर्थक वो लोग थे, जो समाज के हाशिए पर पड़े  थे, जो तमाम अधिकारों से महरूम थे, जो जमीन के  नाम पर या किसी जमींदार के बंधुआ थे। आंबेडकर  का समर्थक, हिंदुस्तान का वो समुदाय था, जो  आर्थिक रूप से सब से कमजोर था। इसका नतीजा  ये हुआ कि आंबेडकर को सामाजिक आंदोलनों के  बोझ को सिर से पांव तक केवल अपने कंधों पर  उठाना पड़ा। उन्हें इस के लिए बाहर से कुछ खास  समर्थन हासिल नहीं हुआ। और ये बात उस दौर के  मीडिया को बखूबी नजर आती थी। आंबेडकर के  कामों को घरेलू ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी  जाना जाता था।  हमें हिंदुस्तान के मीडिया में आंबेडकर की  मौजूदगी और उनके संपादकीय कामों की जानकारी  तो है, लेकिन ये बात ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम  कि उन्हें विदेशी मीडिया में भी व्यापक रूप से  कवरेज मिलती थी। बहुत से मशहूर अंतरराष्ट्रीय  अखबार, आंबेडकर के छुआछूत के खिलाफ  अभियानों और महात्मा गांधी से उनके संघर्षों में  काफी दिलचस्पी रखते थे। लंदन का द टाइम्स,  आॅस्ट्रेलिया का डेली मर्करी, और न्यूयॉर्क टाइम्स,  न्यूयॉर्क एम्सटर्डम न्यूज, बाल्टीमोर अफ्रो-अमरीकन,  द नॉरफॉक जर्नल जैसे अखबार अपने यहां  आंबेडकर के विचारों और अभियानों को प्रमुखता से  प्रकाशित करते थे। भारतीय संविधान के निर्माण में  आंबेडकर की भूमिका हो या फिर संसद की  परिचर्चाओं में आंबेडकर के भाषण, या फिर नेहरू  सरकार से आंबेडकर के इस्तीफे की खबर। इन सब  पर दुनिया बारीकी से नजर रखती थी। बाबा साहेब  ने अपने सामाजिक आंदोलन को मीडिया के माध्यम  से भी चलाया। उन्होंने मराठी भाषा में अपने पहले  समाचार पत्र मूकनायक की शुरूआत क्षेत्रीयता के  सम्मान के साथ की थी। मूकनायक के अभियान के  दिग्दर्शन के लिए तुकाराम की सीखों को बुनियाद  बनाया गया। इसी तरह, आंबेडकर के एक अन्य  अखबार बहिष्कृत भारत का मार्गदर्शन संत ज्ञानेश्वर  के सबक किया करते थे। आंबेडकर ने इन  पत्रिकाओं के माध्यम से भारत के अछूतों के  अधिकारों की मांग उठाई। उन्होंने मूकनायक के  पहले बारह संस्करणों का संपादन किया, जिसके  बाद उन्होंने इसके संपादन की जिÞम्मेदारी पांडुरंग  भाटकर को सौंप दी थी। बाद में डी डी घोलप इस  पत्र के संपादक बने। हालांकि मूकनायक का  प्रकाशन 1923 में बंद हो गया। इसकी खास वजह  ये थी कि आंबेडकर, इस अखबार का मार्गदर्शन  करने के लिए उपलब्ध नहीं थे। वो उच्च शिक्षा के  लिए विदेश चले गए थे। इसके अलावा अखबार को  न तो विज्ञापन मिल पा रहे थे और न ही उसके  ग्राहकों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि उससे  अखबार के प्रकाशन का खर्च निकाला जा सके।  शुरूआती वर्षों में राजिश्री शाहू महाराज ने इस  पत्रिका को चलाने में सहयोग दिया था। आंबेडकर  की पत्रकारिता का अध्ययन करने वाले गंगाधर  पानतावणे कहते हैं कि, मूकनायक का उदय, भारत  के अछूतों के स्वाधीनता आंदोलन के लिए वरदान  साबित हुआ था। इसने अछूतों की दशा-दिशा बदलने  वाला विचार जनता के बीच स्थापित किया।  मूकनायक का प्रकाशन बंद होने के बाद, आंबेडकर  एक बार फिर से पत्रकारिता के क्षेत्र में कूदे, जब  उन्होंने 3 अप्रैल 1927 को बहिष्कृत भारत के नाम  से नई पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। ये वही दौर  था, जब आंबेडकर का महाद आंदोलन जोर पकड़  रहा था। बहिष्कृत भारत का प्रकाशन 15 नवंबर  1929 तक होता रहा। कुल मिला कर इसके 43  संस्करण प्रकाशित हुए। हालांकि, बहिष्कृत भारत का  प्रकाशन भी आर्थिक दिक्कतों की वजह से बंद करना  पड़ा। मूकनायक और बहिष्कृत भारत के हर  संस्करण की कीमत महज डेढ़ आने हुआ करती  थी, जबकि इस की सालाना कीमत डाक के खर्च को  मिलाकर केवल 3 रुपए थी। इसी दौरान समता नाम  के एक और पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ, जिससे  बहिष्कृत भारत को नई जिÞंदगी मिली। उसे 24 नवंबर  1930 से जनता के नए नाम से प्रकाशित किया जाने  लगा। जनता, भारत में दलितों के सब से लंबे समय  तक प्रकाशित होने वाले अखबारों में से है, जो 25  वर्ष तक छपता रहा था। जनता का नाम बाद में बदल  कर, प्रबुद्ध भारत कर दिया गया था। ये सन् 1956  से 1961 का वही दौर था, जब आंबेडकर के  आंदोलन को नई धार मिली थी। आंबेडकर ने 65  वर्ष 7 महीने और 22 दिन की अपनी जिंदगी में  करीब 36 वर्ष तक पत्रकारिता की। मूकनायक से  लेकर प्रबुद्ध भारत तक की उनकी यात्रा, उनकी  जीवन-यात्रा, चिंतन-यात्रा और संघर्ष-यात्रा का भी  प्रतीक है।

हमें हिंदुस्तान के मीडिया में आंबेडकर की मौजूदगी और उनके संपादकीय कामों की  जानकारी तो है, लेकिन ये बात ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम कि उन्हें विदेशी  मीडिया में भी व्यापक रूप से कवरेज मिलती थी। बहुत से मशहूर अंतरराष्ट्रीय  अखबार, आंबेडकर के छुआछूत के खिलाफ अभियानों और महात्मा गांधी से उनके  संघर्षों में काफी दिलचस्पी रखते थे। लंदन का द टाइम्स, आॅस्ट्रेलिया का डेली  मर्करी, और न्यूयॉर्क टाइम्स, न्यूयॉर्क एम्सटर्डम न्यूज, बाल्टीमोर अफ्रो-अमरीकन,  द नॉरफॉक जर्नल जैसे अखबार अपने यहां आंबेडकर के विचारों और  अभियानों को प्रमुखता से प्रकाशित करते थे।  मेरा मानना है कि मूकनायक… प्रबुद्ध भारत में ही  अपनी और पूरे भारतीय समाज की मुक्ति देखता है।  आंबेडकर की पत्रकारिता का संघर्ष मूकनायक के  माध्यम से मूक लोगों की आवाज बनने से शुरू  होकर, प्रबुद्ध भारत के निर्माण के स्वप्न के साथ  विराम लेता है। प्रबुद्ध भारत यानी एक नए भारत का  निर्माण। इस संबंध में मैं प्रोफेसर सतीश प्रकाश का  जिÞक्र जरूर करना चाहूंगा। पिछने दिनों एक कार्यक्रम  में मुझे उन्हें सुनने का अवसर मिला, जहां उन्होंने  एक बहुत महत्वपूर्ण जानकारी साझा की। ये  जानकारी थी दलित शब्द की उत्पत्ति के बारे में।  प्रोफेसर प्रकाश ने बताया कि दलित शब्द की उत्पति  हिंदी से नहीं हुई। असल में जे जे मोसले वर्ष 1832  में मराठी भाषा में इसका प्रयोग करते थे और जो शब्द  इस समाज की पहचान के लिए बनाए गए थे, उस से  समाज खुद नफरत करता था। इसलिए अंग्रेजी  साहित्य में दलितों का वर्णन करने के लिए इस शब्द  की उत्पत्ति हुई। इसलिए इसके मायने भी अंग्रेजी जैसे  हैं। दरअसल ये दलित नहीं, बल्कि द लिट है। लिट  का अर्थ होता है झलना। यानि वे लोग जो अंधेरे से  उजाले की ओर चले गए, वे द लिट कहलाए।  इसलिए प्रोफेसर सतीश प्रकाश का मानना है कि  दलित एक ब्रांड है, जो हर कोई नहीं बन सकता।  और इसे आगे बढ़ाने में बाबा साहेब का अहम  योगदान है। आंबेडकर के विचारों का फलक बहुत  बड़ा है। ये सही है कि उन्होंने वंचित और अछूत वर्ग  के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी, लेकिन उनका  मानवतावादी दृष्टिकोण हर वर्ग को छूता है। यह  केवल शब्दों का अंतर है। हम जनसरोकारों की  पत्रकारिता की बात तो करते हैं, लेकिन जैसे ही उस  पर आंबेडकरवादी विचारधारा का नाम जोड़ दिया  जाता है, तो वह जाति विशेष की हो जाती है।  मेरा मानना है कि बाबा साहेब को एक तंग गली  के रूप में देखना ठीक वैसा ही है, जैसे गंगा को एक  गली में ही बहते देखना। प्रसिद्ध समाजशास्त्री गेल  ओमवेट का मानना है कि आंबेडकर का बुनियादी  संघर्ष, एक अलग स्वाधीनता का संघर्ष था। यह  संघर्ष भारतीय समाज के सर्वाधिक संतप्त वर्ग की  मुक्ति का संघर्ष था। उनका स्वाधीनता संग्राम,  उपनिवेशवाद के विरुद्ध चलाए जा रहे स्वाधीनता  संग्राम से बड़ा और गहरा था, क्योंकि उनकी नजर  नवराष्ट्र के निर्माण पर थी6 आंबेडकर का मानना था  कि पत्रकारिता का पहला कर्तव्य है, बिना किसी  प्रयोजन के समाचार देना, बिना डरे उन लोगों की  निंदा करना, जो गलत रास्ते पर जा रहें हों, फिर चाहे  वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों और पूरे समुदाय  के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित  करना। मूकनायक से लेकर प्रबुद्ध भारत तक बाबा  साहब की पत्रकारिता की यात्रा एक संकल्प को सिद्ध  करने का वैचारिक आग्रह है। अपनी पत्रकारिता के  माध्यम से उन्होंने दलितों एवं सवर्णों के मध्य बनी  भेद-भाव, ऊंच-नीच और सामाजिक विषमता की  खाई को पाटने का काम किया। मुझे लगता है कि  उनकी पत्रकारिता में संपूर्ण समाज के लिए प्रबोधन  है, उसे केवल दलित पत्रकारिता का सीमित कर देना  अन्यायपूर्ण होगा। आज से सौ साल पहले पत्रकारिता  पर अंग्रेजी हुकूमत का दबाव था। दबाव से कई  चीजें प्रभावित होती थीं। सत्ता के खिलाफ बगावत  के सुर, शब्दों से भी फूटते थे। आजाद भारत में यह  दबाव धीरे-धीरे मार्केट ने ले लिया है। मार्केट का  प्रभाव अप्रत्यक्ष ज्यादा है। यह कोई नई बात नहीं है  कि आज जर्नलिज्म में मार्केट के दबाव के कारण  कंटेंट प्रभावित होने लगा है। ये चर्चा भी नई नहीं है  कि इस मार्केट को नियंत्रित करने वाले कौन हैं,  उनका मकसद क्या है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना  चाहिए कि जहां पब्लिक है, वहीं मीडिया है और  जहां मीडिया है, वही मार्केट है। उदारीकरण के दौर  के बाद से ही मीडिया का संक्रमण काल चालू हुआ।  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दौर में कई प्रयोग हुए। उस  वक्त ये कहा जाता था कि प्रिंट मीडिया का अस्तित्व  ही खत्म हो जाएगा। जैसे ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की  साख पर बट्टा लगना शुरू हुआ, पब्लिक ने सुबह  छपे हुए अखबार में प्रामाणिकता देखना शुरू किया।  आज जनता होशियार हो चुकी है। उसे बहुत देर  तक भ्रम में नहीं डाला जा सकता है। अब चंद  मिनटों में सूचना लाखों करोड़ों लोगों के पास है।  पत्रकारिता के इस पूरे फलक पर ही हमें आज  अंबेडकरवादी पत्रकारिता के सरोकारों को समझना  चाहिए।  मीडिया के पराभव काल की मौजूदा परिस्थितियों  में आंबेडकर का जीवन हमें युग परिवर्तन का बोध  कराता है। पत्रकारिता में मूल्यविहीनता के सैलाब के  बीच अगर बाबा साहेब को याद किया जाए, तो इस  बात पर भरोसा करना बहुत कठिन हो जाता है कि  पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में कोई हाड़मांस का इंसान  ध्येयनिष्ठा के साथ अपने पत्रकारीय जीवन की यात्रा  को जीवंत दर्शन में भी तब्दील कर सकता है। इस  संदर्भ में वरिष्ठ विचारक और चिंतक दत्तोपन्त ठेंगड़ी  ने अपनी पुस्तक डॉ. आंबेडकर और सामाजिक  क्रांति की यात्रा में लिखा है, कि भारतीय समाचार-  पत्र जगत की उज्ज्वल परंपरा है। परंतु आज चिंता  की बात यह है कि संपूर्ण समाज का सर्वांगीण विचार  करने वाला, सामाजिक उत्तरदायित्व को मानने वाला,  समाचार पत्र को लोकशिक्षण का माध्यम मानकर  तथा एक व्रत के रूप में उपयोग करने वाला  आंबेडकर जैसा पत्रकार मिलना दुर्लभ हो रहा है।  आंबेडकर की पत्रकारिता हमें ये सिखाती है कि  जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग जैसी  शोषणकारी प्रवृत्तियों के प्रति समाज को आगाह कर  उसे इन सारे पूर्वाग्रहों और मनोग्रंथियों से मुक्त करने  की कोशिश ईमानदारी से की जानी चाहिए और यही  मीडिया का मूल मंत्र होना चाहिए। पत्रकारों की  अपनी निजी राय हो सकती है, लेकिन खबर बनाते  या दिखाते समय उन्हें अपनी राय से दूर रहना चाहिए,  क्योंकि रिपोर्टिंग उनके एजेंडे का आईना नहीं है,  बल्कि अपने पाठकों के साथ पेशेवर करार का  हिस्सा है। हमारे देश का मीडिया बहुत समय पहले  से ही अपनी इस पेशेवर भूमिका से हटकर कुछ और  ही दिखाने या लिखने लगा है। 100 साल पहले  बाबा साहेब ने एक अस्पृश्य समाज की आवाज को  देश के सामने लाने के लिए मूकनायक की शुरूआत  की थी, और आज देश को फिर ऐसे ही नायक की  जरूरत है, जो जनता के मुद्दों को उठाये, जनता की  आवाज को बुलंद करे, जिसे व्यवस्थावादी मीडिया  ने मूक कर दिया है।