मन्त्रगान करने वाले का त्राण करने वाली गायत्री
भारतीय सभ्यता संस्कृति में पूजा-आराधना में प्रयुक्त होने वाले सामान्य व बीज मन्त्रों के मध्य देवी गायत्री और उनके मन्त्र, गायत्री मन्त्र का अपना पृथक व विशिष्ट महत्व है। देवी गायत्री से ही चारों वेदों की उत्पति होने के कारण उनके गायत्री मन्त्र को वेदों का सार कहा जाता है। मान्यता है कि गायत्री माता चारों वेदों की जननी हैं। चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लेने से जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह एकमेव गायत्री मन्त्र को जानने- समझने मात्र से प्राप्त हो जाता है। अर्थात् इससे चारों वेदों का ज्ञान मिल जाता है।
सभी वेदों की माता कही जाने वाली गायत्री माता की उत्पत्ति ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को हुई थी। इसी कारण गंगा दशहरा के दूसरे दिन ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को गायत्री जयंती मनाये जाने की पौराणिक परिपाटी है। मान्यता है कि प्रारंभ में चारों वेदों के सार स्वरूप मानी जाने वाली गायत्री मन्त्र का ज्ञान मात्र कुछ देवी तक ही सीमित था, अर्थात् इसकी जानकारी कुछ देवी- देवताओं को ही थी। बाद में ऋषि विश्वामित्र ने कठोर तप करके इस मन्त्र को प्राप्त किया और साधारण मनुष्यों तक भी उसका लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से उसे जन -जन तक पहुंचाया। मान्यता है कि गुरु विश्वामित्र ने गायत्री मन्त्र को ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी के दिन दिन सबसे पहले सर्वसाधारण अर्थात् आम जनता के लिए बोला था। विश्वामित्र के द्वारा इसे सर्व साधारण के लिए ज्येष्ठ शुक्ल की पवित्र एकादशी की तिथि को उपलब्ध कराये जाने की स्मृति व प्रसन्नता में ही इस दिन को गायत्री जयंती के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा। इस दिन गायत्री भक्त नित्यप्रति नमनीय गायत्री की विशेष श्रद्धा के साथ पूजा- अर्चना कर सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के तेज का ध्यान कर परमात्मा के उस तेज से बुद्धि को सत्य के मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करने की प्रार्थना करते हैं। उस प्राणस्वरूप, दु:खनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को अंत:करण में धारण कर परमात्मा से बुद्धि को सत्य की राह पर चलने के लिए प्रेरित करने और उनकी कृपा प्राप्ति की कामना करते हैं। ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी तिथि को निर्जला अथवा भीमसेनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार इसे श्रावण पूर्णिमा के समय मनाना भी बहुत ही शुभ माना गया है। इसी कारण कुछ स्थानों पर लोग सावन माह की पूर्णिमा तिथि को गायत्री जयंती मनाते हैं। इस वर्ष 10 जून 2022 दिन शुक्रवार को प्रात: 7:25 बजे ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का प्रारंभ और समापन अगले दिन 11 जून शनिवार को प्रात: 5:45 मिनट पर होना है, परन्तु उदयातिथि के आधार पर गायत्री जयंती 11 जून शनिवार का मनाई जाएगी। माता गायत्री का यह महामन्त्र- ॐ भूभुर्व: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। यजुर्वेद के मन्त्र- ॐ भूभुर्व: स्व: और ऋग्वेद के छंद 3/62/10 के मेल से बना है। यह मन्त्र ऋग्वेद में महर्षि भृगु को समर्पित है। इस मन्त्र में सवितृ देव की उपासना है, इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। गायत्री-मन्त्र को भी गुरुमन्त्र कहा गया है। चारों वेदों में इसका वर्णन हुआ है। ऋग्वेद 3/ 62/ 10 , यजुर्वेद 3/ 35, 22/ 9, 30/2, 36/3 सामवेद 1462 में गायत्री मन्त्र का अंकित है। अथर्ववेद के अनुसार यह वेद-माता, गायत्री-माता, द्विजों को पवित्र करनेवाली, आयु, स्वास्थ्य, सन्तान, पशु, धन, ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस देनेवाली और ईश्वर दर्शन करानेवाली है। छान्दोग्योपनिषद में भी इसकी महिमा गान की गई है। बादरायण के ब्रह्मसूत्र 1/1/25 पर शारीरिक भाष्य करते हुए शंकराचार्य जी ने लिखा है कि गायत्री मन्त्र के जप से ब्रह्म की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि इस मन्त्र के उच्चारण और इसका अर्थ व रहस्य समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। गायत्री के वेदों की जननी और पापों का नाश करने वाली होने की मान्यता के कारण उनके इस मन्त्र को ही श्रीगायत्री देवी का स्वरूप माना जाता है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लेकर ऋषि-मुनियों, साधु-महात्माओं और स्वकल्याण की इच्छा रखने वाले लोगों ने इस मन्त्र का आश्रय लिया है। सभी वेदों में किसी न किसी संदर्भ में इसका अवश्य ही उल्लेख आया है। गायत्री का शाब्दिक अर्थ है गायत्त्रायते अर्थात् गाने वाले का त्राण करने वाली। गायत्री मन्त्र गायत्री छंद में रचा गया अत्यंत प्रसिद्ध मन्त्र है। इसके देवता सविता हैं, और ऋषि विश्वामित्र हैं। गायत्री मन्त्र में पहले आये ॐ को प्रणव कहा जाता है। ॐ प्रणव परब्रह्म परमात्मा का सर्वोत्तम नाम है। ओम् के अ+उ+म् इन तीन अक्षरों को ब्रह्मा, विष्णु और शिव का रूप माना गया है। ॐ के बाद भू: भुर्व: स्व: लगाकर ही मन्त्र का जाप किये जाने की परिपाटी है। ये गायत्री मन्त्र के बीज हैं। बीज मन्त्र का जाप करने से ही साधना सफल होती है। इसलिए ॐ और बीजमंत्र सहित पूर्ण गायत्री मन्त्र का अर्थ इस प्रकार है- पृथ्वीलोक, भुव:लोक और स्वर्गलोक में व्याप्त उस श्रेष्ठ परमात्मा (सूर्यदेव) का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ कर्मों की ओर प्रेरित करें। गायत्री मन्त्र को चार वेदों का सर्वश्रेष्ठ, सनातन एवं अनादि मन्त्र माना जाता है। इसके 24 अक्षर अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण 24 शिक्षाओं के प्रतीक हैं। वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृति आदि पुरातन ग्रन्थों के माध्यम से मनुष्य जाति को दी गई समस्त शिक्षाओं का सार इन 24 अक्षरों में मौजूद है। गायत्री मन्त्र सूर्य भगवान को समर्पित होने के कारण इस मन्त्र को सूर्योदय और सूर्यास्त के समय पढ़ा जाता है। इस मन्त्र के शब्दों को इस तरह संकलित किया गया है कि उसके जाप से उनका लाभ होने के साथ-साथ मन्त्र का अर्थ भी स्वत: प्रकट होने लगता है। गायत्री मन्त्र के प्रत्येक अक्षर व शब्द शरीर के विभिन्न हिस्सों को प्रभावित करते हैं।
हमारे शरीर में 7 चक्र होते हैं, जिनमें 72 हजार नाड़ियों होती हैं। ये नाड़ियां जीभ से जुड़ी हुई सुप्त अवस्था में रहती हैं। अर्थात इनका सम्बन्ध, कनेक्शन जीभ से होता है। मंत्रोच्चार के समय मन्त्र के शब्द जीभ पर स्पर्श अर्थात टच करने वाले स्थानों के नाड़ियों को जागृत करने का कार्य करते हैं। मन्त्र जाप के समय हर अक्षर गला, फेफड़े, नाभि आदि शरीर के विभिन्न भागों व ग्लांड को उत्तेजित करता है। इससे नाड़ियों में और सम्बन्धित अंगों में शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभप्रद ऊर्जा उत्पन्न होती है। गायत्री मन्त्र को सूर्य देव की उपासना के लिए सबसे सरल और फलदायक मन्त्र माना गया है। पौराणिक मान्यतानुसार चारों वेद, पुराण, श्रुतियाँ आदि सभी गायत्री से ही उत्पन्न हुई पौराणिक मान्यतानुसार चारों वेद, पुराण, श्रुतियाँ आदि सभी गायत्री से ही उत्पन्न होने के कारण इन्हें वेदमाता की संज्ञा दी गयी है। माता गायत्री को ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का ही एक विशेष स्वरुप माना जाता है। उनके पांच में से चार मुख चारों वेदों के प्रतीक हैं, और पांचवा मुख सर्वशक्तिमान शक्ति होने का संदेश देता है। देवी गायत्री के स्वरुप के दस हाथ भगवान विष्णु के प्रतीक हैं। त्रिदेवों की आराध्या भी माता गायत्री को ही माना गया है। मान्यता है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा के मुख से सर्वप्रथम गायत्री मन्त्र की ही ध्वनि प्रकट हुई थी। माता गायत्री की असीम कृपा से ही ब्रह्मा के द्वारा गायत्री मन्त्र की व्याख्या अपने चारों मुखों से चार वेदों के रूप में कर पाना सम्भव हो सका था। कहा जाता है कि भगवान सूर्य के द्वारा इन्हें ब्रह्मा को समर्पित कर दिए जाने के कारण इन्हें ब्रह्माणी की संज्ञा प्राप्त हुई है। देवी गायत्री को पंचमुखी माना गया है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड अर्थात जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश की ओर इन पंचमुखी द्वारा इंगित किये जाने अर्थात करने के कारण ही इन्हें यह संज्ञा प्राप्त है। इन्हीं पांच तत्वों से संसार के सभी प्राणियों का निर्माण हुआ है। इसीलिए पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के अंदर गायत्री रुपी प्राणशक्ति विद्यमान होने की मान्यता प्रचलित है। इसी कारण से गायत्री को सभी प्रकार की शक्तियों का आधार माना गया है। मान्यता है कि विशेष महिमा प्राप्त गायत्री मन्त्र का जाप करने से मनुष्य सभी प्रकार के दुखों से दूर हो जाता है। गायत्री की कृपा से मनुष्य को आयु, शक्ति, प्राण, कीर्ति, धन आदि की प्राप्ति होती है। मानसिक शांति एवं तनाव दूर करने के लिए गायत्री मन्त्र का जाप उत्तम माना गया है। मान्यता है कि गायत्री के छिपे हुए रहस्यों को जान लेने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता है। इसी कारण श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है- गायत्री छंदसामहम। अर्थात- गायत्री मन्त्र मैं स्वयं ही हूं।
रामकुमार शर्मा