कोरोना महामारी का नियंत्रण और इससे होने वाले रोगों का इलाज
वर्ष 2020 मार्च में भारत में लॉकडाउन की घोषणा से इस महामारी की खबर पूरे देश में फैल गई। आम तौर से होने वाली महामारियों की तरह से अवधि कुछ सप्ताह या महीनों तक सीमित नहीं रही। एक वर्ष बाद ये फिर से तेजी से उभर रही है और दूसरी वेव का रूप धारण कर लिया है। इसके साथ ही देश के कई शहरों में फिर से लॉकडाउन की घोषणा की जा चुकी है। साथ ही पूरे देश में फिर से लॉकडाउन होने का खतरा मंडरा रहा है। अभी ये कहना संभव नहीं कि इस महामारी का अंत कब और कैसे होगा। इसके कारण पैदा हो रहे असमंजस और अनिश्चय के कारण समाज और देश में भय का वातावरण व्याप्त हो गया है। प्रस्तुत लेख ल्रोक शिक्षण की दृष्टि से लिखा गया है। आशा है कि पाठक इसको पढ़कर अपने अनेकों प्रश्नों का समाधान प्राप्त कर सकेंगे और उनकी शंका के निर्मूल-समाधान होने से समाज में व्याप्त भय को शांत करने में कुछ योगदान हो सकेगा।
डॉ. ओंकार मित्तल
महामारी का विज्ञान अलग है और किसी मरीज का इलाज करने का विज्ञान अलग है। आम विमर्श में इन दोनों समानांतर पहलुओं को उलझा दिया गया है। इस कारण बहुत सारी भ्रम की स्थितियां पैदा हो गई है। महामारी या अंग्रेजी भाषा में जिसको एपिडेमिक कहा जाता है- जब कोई बीमारी दुनिया के कई देशों में एक साथ होती है तो इसको महामारी, वैश्विक-महामारी या पेंड़ेमिक का नाम दिया जाता है। महामारी का एक मुख्य चरित्र होता है- बड़ी तेज गति से कोई बीमारी जब एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमण करते हुए चारों तरफ फैल जाती है। इसलिए महामारी के विज्ञान (एपिडेमियोलोजी) की दृष्टि से मुख्य लक्ष्य होता है इसके फैलाव (संचरण) की रोकथाम करना। इसके लिए व्यक्तियों के आवागमन को रोकना, व्यक्तियों को एक दुसरे से मिलने से रोक देना- क्वारेंटीन तथा स्वच्छता को सुनिश्चित करना इत्यादि कड़े कदम उठाये जाते हैं। बीमारी का शिकार हो रहे लोगों का इलाज करना तथा मृत्यु की ओर अग्रसर होते लोगों का इलाज करने की जिम्मेदारी हॉस्पिटल्स और चिकित्सक समुदाय की होती है। दोनों प्रकार के विशेषज्ञों के अलग-अलग वर्ग होते हैं। महामारी के विशेषज्ञों को ये भी सुनिश्चित करना होता है कि इलाज के प्रबंध की व्यवस्थाएं सुचारू ढंग से काम करें और इसकी योजना को पहले से ही बना लिया जाए ताकि जानमाल की कम से कम हानि हो, इसको ध्यान में रखकर महामारी की रोकथाम को सुनिश्चित किया जा सके।
एसिम्पटोमेटिक केस
इस समय कोरोना की महामारी से जो मरीज शिकार हो रहें हैं उनमें से लगभग 80-85% में रोग के कोई लक्षण नहीं पाए जाते। इनको एसिम्पटोमेटिक केस कहा जाता है। कोरोना महामारी के फैलाव के लिए इनकी अहम भूमिका मानी गई है। लेकिन इनको किसी इलाज की आवश्यकता नहीं होती। केवल रोग का संक्रमण थामने के लिए इनको बाकी लोगों से अलग करना जरूरी होता है। इसी को क्वारेंटीन का नाम दिया गया है।
सिम्पटोमेटिक केस
15-20% कोविड पॉजिटिव केसेस सिम्पटोमेटिक होते हैं अर्थात इनमें- रोग के विभिन्न लक्षण पाए जाते हैं। इनमें बुखार, जुकाम-खांसी और सांस का फूलना प्रमुख हैं। इनका भी हल्का-सौम्य, मध्यम और गंभीर में वर्गीकरण किया गया है। मॉडरेट में दो अवस्थायें पाई जा रही हैं एक सौम्य/हल्का-मध्यम। दूसरा गंभीर-मध्यम कौन सा केस माइल्ड से मॉडरेट, मॉडरेट से सीवियर और सीवियर से मृत्यु तक पहुंचेगा ऐसा बता पाना संभव नहीं है। सीवीयर मरीजों को फेफड़ों के रोग ग्रस्त होने के कारण आॅक्सिजन की कमी हो जाती है। बीमारी के ठीक न होने से कुछ मरीज मृत्यु का शिकार भी हो जाते हैं। विभिन्न अनुमानों में केस फेटेलिटी या पॉजिटिव केसेस में मृत्यु दर को 2-3 प्रतिशत के लगभग माना गया है। निदान और इलाज का विज्ञान जैसा ऊपर कहा गया है- कोविड पॉजिटिव टेस्ट होने पर ही बीमारी का निदान माना जाता है। इस टेस्ट को फळ-ढउफ टेस्ट का नाम दिया गया है। इसके लिए सैंपल मरीज की फेरिन्जियल म्योकोसा से लिया जाता है। इसकी रिपोर्ट पॉजिटिव या निगेटिव नाम से आती है। पॉजिटिव से तात्पर्य है कि मरीज के शरीर में आर. एन. ए.- कोरोना वाइरस की कोविड-19 नाम की प्रजाति का जेनोमिक मेटीरियल की मौजूदगी पाई गई। आम तौर से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वाइरस की वृद्धि को नियंत्रित करने में सक्षम होती है और कुछ मामूली बुखार, जुकाम और खांसी के बाद बीमारी स्वयं ठीक हो जाती है। इस स्थिति में कुछ लाक्षणिक इलाज बीमारी के लक्षणों का शमन करने के लिए दिया जा सकता है। इसमें पेरासीटामोल की गोली, खांसी का शरबत और विटामिन इत्यादि शामिल हैं। कुछ सरकारी गाइडलाइन में कुछ एंटीबायोटिक्स का भी समावेश किया गया है।
साइटोंकैन स्टोर्म (शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता का अतिक्रमण)
इस प्रकार वाइरस अपने आप को स्वयं नियत्रित करता है- शरीर की इम्युनिटी या रोग प्रतिरोधक क्षमता इसमें एक रक्षा पंक्ति का काम करती है। लेकिन कोरोना वाइरस के केस में पाया गया है कि कई बार शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता अपनी मर्यादा का अतिक्रमण करके बहुत अधिक मात्रा में रक्षा रसायनों का अति स्राव कर देती है। इसको साइटोंकैन स्टोर्म का नाम दिया गया है। ये अति मात्रा में स्रावित रसायन शरीर में अनेक प्रकार के इन्फलामेटरी प्रोसस्सेस को जन्म देते हैं। इससे शरीर के विभिन्न हिस्सों में रक्त के थक्के जमने लगते हैं जिसको श्रोम्बोसिस कहते हैं। फेफड़ों के थ्रोम्बोसिस से ही आॅक्सिजन की कमी की स्थिति पैदा हो जाती है। इन स्थितियों का शमन करने के लिए- डेक्सामेथासौंन- एंटी थ्रोम्बोतिक जैसी औषधियों और आॅक्सिजन का इस्तेमाल करना पड़ता है। जब साधारण आॅक्सिजन प्रभावी न हो तो वेंटीलेटर के माध्यम से फेफड़ों को सहारा देकर आॅक्सिजन के संचरण को बढ़ाना पड़ता है। लेकिन अक्सर देखा गया है कि ऐसे वेंटिलेटर की जरूरत वाले गंभीर मरीज अक्सर बच नहीं पाते।
कोविड रोगी के उपचार के लिए दिशा-निर्देश
ऐसे समय में जब बड़ी संख्या में लोग बीमारी का शिकार होते हैं और उनके मरने का खतरा मंडराता है- महामारी के वैज्ञानिकों का ये भी कर्तव्य होता है कि सभी लोगों के इलाज के लिए सामान्य गाईडलाइंस सरकार की तरफ से जारी करवाएं। कोरोना के मामले में ये विशेष चुनौती है कि ये आंकलन करना पूरी तरह से संभव नहीं कि कौन सा व्यक्ति तेजी से माइल्ड से मोडरेट – मोडरेट से सीवियर की ओर अग्रसर हो जायेगा। यद्यपि जो मरीज जीर्ण रोगों से ग्रसित हैं जैसे- वृद्धावस्था, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, कैंसर या अन्य उनके अंदर इस प्रकार का खतरा ज्यादा मौजूद रहता है। लेकिन कुछ युवा उम्र के स्वस्थ व्यक्ति भी इस दुर्भाग्यपूर्ण विपरीत स्थिति का शिकार हो जाते हैं जिसकी खबर से पूरे समाज और इलाके में भय का वातावरण बन जाता है। आमतौर से असिम्प्टोमेटीक पॉजिटिव केसेस या बिना रोग के लक्षण वाले को किसी इलाज की आवश्यकता नहीं होती। इनको केवल अपने आप को 10 से 14 दिन तक क्वारेंटीन करना होता है जिससे वाइरस का संक्रमण दूसरे तक न फैले। साधारण सर्दी, जुकाम-बुखार के मरीजों का काम भी लाक्षणिक दवाईयों से चल सकता है जिसका संकेत ऊपर किया जा चुका है। सरकार द्वारा जारी की गई गाइडलाइन्स में बिना लक्षणों वाले मरीजों और माइल्ड मरीजों के लिए विभिन्न प्रकार की दवाइयों का प्रावधान किया गया है, लेकिन इसके बारे में भिन्न भिन्न मत हैं। आयुष विभाग के द्वारा इन स्थितियों में आयुष की दवाइयों की भी अनुशंसा की गई है। लगभग 5-7 प्रतिशत कोविड पॉजिटिव मरीज ऐसे हैं जो मोडरेट और सीवियर स्थिति में धीरे- धीरे पहुँच रहे होते हैं। इनके ऊपर विशेष निगाह रखने की जरूरत होती है। कई बार फेफड़ों में रक्त जमा होने के कारण इनके अंदर आॅक्सिजन की मात्रा कम हो जाती है जिसका आंकलन ओक्सोमीटर नामक मशीन से किया जाता है। जिसका रढड2 या आॅक्सिजन सेचुरेशन 93% से कम हो उसको हास्पिटल के अंदर ही इलाज करवाना चाहिए। घर के अंदर ही आॅक्सिजन देने की व्यवस्था की बात की जा रही है जो उचित व्यवस्था नहीं है। आॅक्सिजन के साथ कई प्रकार की विशिष्ट दवाईयों की व्यवस्था करनी पड़ती है जो एक साधारण व्यक्ति के या जनरल डाक्टर के भी विवेक और क्षमता से भी बाहर है। ?
निष्कर्ष: कुल मिलाकर कोरोना एक महामारी है और हमारे सामने चुनौती इसके संक्रमण को रोकने की है। इसके लिए मास्क – सोशल डिसटेंस- स्वच्छता – और क्वारेंटीन जैसे कदमों को प्रभावी माना गया है। लेकिन इनमें से अधिकाश संक्रमित व्यक्ति किसी रोग के लक्षण का शिकार नहीं होते इसलिए संक्रमण फैलाने वाले व्यक्ति की पहचान करना कठिन है और इसके लिए सभी के टेस्ट करने का सहारा लेना पड़ता है। लगभग 15% व्यक्ति हलके या तीव्र लक्षणों वाली बीमारी का शिकार होते हैं। इनमें से भी अधिकतर स्वयं को सीमित करने वाले होते हैं। कुल 2-3 प्रतिशत मरीज मृत्यु का शिकार भी हो जाते हैं। सरकार और उसके साथ सरकारी और गैर सरकारी प्रचार माध्यमों के द्वारा एक ओर समाज में व्याप्त भय को भी कम करने की आवश्यकता है। वहीं दूसरी और गंभीर स्थिति की ओर जाते हुए मरीजों की समय रहते पहचान करके उनको सही समय पर सही इलाज मिल्नने की आवश्यकता है। भारत देश के अंदर उचित इच्छा शक्ति से इसको कर दिखाना संभव है। इस वर्ष की शुरूआत से कोरोना महामारी के नियंत्रण के लिए दुनिया में विभिन्न टीकों या वैक्सीन का सहारा लिया गया है। भारत में लगभग 13 करोड़ डोज वैक्सीन की दी जा चुकी हैं। ये माना गया है कि वैक्सीन से रोग का संक्रमण नहीं रुकेगा लेकिन सेवियर डिसीज होने की सम्भावना बहुत कम हो जायेगी। इस दावे की हकीकत आगे आने वाले महीनों और वर्षों में ही सामने आ पायेगी।