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आर्किडों की दुनियां

धरती के आवरण की छटा और मनोहरी पुष्पों की आभा बिखरने वाले पादपों में आर्किडों की गणना निश्चय ही प्रथम श्रेणी में की जाएगी । अत: यह कोई आश्चर्य नहीं है कि जैसे-जैसे मानव शीतोष्ण एवं उष्णकटिबंधी दोनों ही क्षेत्रों में उनकी विविधता, अतुलनीय रंग-परास, सुंदर और कभी-कभी कौतूहलपूर्ण रूप, आकार एवं संरचना से अवगत होता गया उसकी इनके प्रति रूचि एवं आकर्षण बढ़ता ही गया और यह किसी भी पुष्प-चयनकर्ता अथवा माली के हस्त-कौशल का केंद्र बनते गए।

आॅर्किड शब्द का सर्वप्रथम उपयोग ग्रीस के दार्शनिक थियोफ्रेस्टस ने किया था जिसका अर्थथा वृषण यह पादप की युग्मित जड़ों (प्रकंद की आकृति) का द्योतक था । बाद में लिनियस ने भी इस तकनीकी शब्द को अपना लिया।

आकार विविधता

यह जानना अत्यंत रुचिकर है कि 17वीं शताब्दी के अंत और 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में मध्य एवं दक्षिणी अमरीका, प्रशांत द्वीप समूहों, एशिया, अफ्रीका एवं आस्ट्रेलिया को, उनकी प्राकृतिक संपदा की खोज करने के लिए अनेक साहसिक अभियान भेजे गये थे । एक ऐसे अभियान की समाप्ति पर 17वीं शताब्दी के अंत में जोसेफ ब्रेयने नामक जर्मन वनस्पतिज्ञ ने प्रकृति में आर्किडों की अभूतपूर्व दर्शनीयता का वर्णन निम्न शब्दों में किया था कि यदि प्रकृति पादपों की संरचना में अपने अठखेलेपन की कहीं अभिव्यक्ति की है तो वह सबसे ऊंचे स्तर पर आॅर्किडों में ही देखने को मिलेगी । वे कभी छोटी-छोटी चिड़ियों, छिपकली, कीटों, पुरूष, स्त्री, तपस्वी, योद्धा अथवा भांड (विदूषक) का रूप धारण कर हमें हंसने के लिए विवश करते हैं । दूसरी ओर ही वे सुस्त कछुए, दुखी भेक घोंघे अथवा चौकन्ने एवं कूदते-फांदते वानर जैसी आकृति भी धारण कर लेते हैं ।

आॅर्किडों के पुष्पों में इतनी अधिक आकार विविधता है कि वह कुछ मिमी से 1/3 मी तक और काले को छोड़कर सभी ज्ञात रंगों में हो सकते हैं । पुष्पों की बनावट में इतनी विविधता और कौशल है कि वे चमगानड़ों, चिड़ियों, कीटों, मेढ़कों, तक से परागित होने के लिए अनुकूल दशार्ते हैं। आॅफिस स्पेकुलम नामक प्रजाति केपुष्प स्कोलिया सिलिएटा नामक कीट की मादा से इतनी अधिक समानता दशार्ते हैं कि नर कीट, मादा कीट की खोज के चक्कर काटते हुए, जब इस पुष्प के निकट पहुंचकर संपर्क स्थापित करता है तो इसे मादा कीट समझकर धोखा खा जाता है, और इस प्रकार परागण प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है ।

पादपों के अन्य भागों की आकृति में भी इतने असामान्य रूपांतरण देखे जाते हैं कि सामान्य मानव में यह धारण बलवती होती है कि आॅर्किडों में कई जादुई अथवा औषधीय गुण विद्यमान होते हैं । श्रीलंका में डेन्ड्रोबियम मैकार्थिल नामकप्रजाति के पुष्प भाग्यवान माने जाते हैं और इन्हें भगवान बुद्ध के मंदिरों में एक विशिष्ट त्यौहार के अवसर पर चढ़ाया जाता है । इसलिए इन पुष्पों को ‘वेकस माला’ की संज्ञा दी जाती है । स्थानीय लोग वैनिला वंश की कुछ प्रजातियों के फलों से सुस्वाद एवं सुगंधित ‘वैनिला फलियां’ प्राप्त करते हैं । दूसरी ओर मारिशस में स्वादिष्ट ‘लहम चाय’ एंग्रेकम फ्रेगरेंस आॅर्किड प्रजाति की सूखी पत्तियों को पानी में उबालकर बनाई जाती है। भारत एवं श्रीलंका दोनों ही देशों में प्राचीन काल में कई आॅर्किड जातियां औषधीय गुणों के लिए महत्वपूर्ण ठहराई जाती थीं । इनमें से कुछ तो अभी भी विविध उपचारों जैसे गठिया, मांसपेशियों की पीड़ा अथवा त्वचा के रोगों में बाह्य रूप में आलेपित की जाती है जबकि अन्य का अर्क/काढ़ा श्वास एवं अपच निवारण हेतु पिलाया जाता है। कुछ प्राचीन यूरोपीय औषधिवेत्ता आॅर्किडों की जड़ों को कामोत्तेजक के रूप में संस्तुत करते थे ।

पुष्पविज्ञान में आॅर्किडों के महत्व को देखें तो इस पर-परागित और जटिल पुष्प संरचनाधारी समूह की ओर ध्यान इसलिए और भी आकर्षित हो जाता है कि संकटापन्नप्राणी और वनस्पति-समूह के
व्यापार की मान्यता के अनुसार वन्य आॅर्किड जातियों का व्यापारपूरी तरह प्रतिबंधित है । दूसरी ओर कुछ आॅर्किड जैसे डेन्ड्रोबियम, फालीनोप्सिस, ओन्सिडियम एवं सिम्बिडियम पुष्प उद्योग में अत्यंत लोकप्रिय हैं।

विविध

कई आॅर्किडों के पुष्प डाक टिकटों पर भी मुद्रित किए गए हैं । 1937 में कोस्टारिका ने कैट्टलेया स्किन्नेराई और ब्राजील ने 1946 में लोइलियापरप्यूरेटा को ऐसे ही दशार्या था । इसके उपरांत सयुंक्त राज्य अमरीका के कोलम्बिया राज्य ने क्रमश: छ: सुप्रसिद्ध आॅर्किडों को डाक टिकटोंपर उकेरा था । श्रीलंका का ‘वेसिक आॅर्किड’ भी डाक टिकट पर स्थान पा चुका है । यह उल्लेख अत्यधिक प्रासांगिक होगा कि 1988 में सीआटिक सं. रा. अमरीका में जब अंतर्राष्ट्रीय वानस्पतिक कांग्रेस संपन्न हुई थी तो साइप्रीपीडियम को सम्मानित करने के लिए इसे डाक टिकट पर मुद्रित किया गया था । भारत में आॅर्किडों की 1256 जातियां हैं, इनमें से 158 वंशतथा 388 जातियां देशज हैं । आॅर्किडों के तीन विभिन्न रूप हो्ते हैं (क) पहली श्रेणी में वे हैं जो दूसरे पौधों पर अथवा चट्टानों पर शैलवासी अधिपादप के रूप में उगते हैं । (ख) स्थलवासी ऐसे पादप जो भूमि पर अथवा आरोहियों के रूप में उगते हैं, और (ग) कवकों के ऊपर जीवन व्यतीत करने वाले यह अपना पोषण कवकमूलों से प्राप्त करते हैं जो स्वयं किसी न किसी संवहनीपादप की जड़ पर लगे होते हैं । देश में वितरित कुल आॅर्किडों में से 757 जातियां अधिपादप, 447 स्थलवासी और 43 कवकों से भोजन प्राप्त करने वाली हैं ।

वितरण

अधिपादपी आॅर्किड समुद्र तल से 1,800 मी तक की ऊंचाई पर पाए जाते हैं । इनकी संख्या ऊंचाई के साथ-साथ घटती जाती है । स्थलीय जातियां, जो सीधी भूमि पर उगती हैं, अधिकांशत: शीतोष्ण एवं अल्पायनी क्षेत्रों में मिलती हैं जबकि तीसरी श्रेणी की जातियां अधिकांशत: शीतोष्ण अथवा उष्णकटिबंधी प्रदेशों में परजीवियों के साथ उगती मिलती हैं ।

प्रांतवार वितरण

आॅर्किडों के प्रांतवार वितरण के विश्लेषण से पता चलता है कि हिमालयी क्षेत्र, देश के उत्तरी पूर्वी भाग और दक्षिण में पश्चिमी घाट इन लवण्यमयी प्रजातियों के तप्त-स्थल हैं । अध्ययन के अनुसार अरूणाचल प्रदेश में इनकी सबसे अधिक संख्या (621 जातियां) हैं और सिक्किम में 560 । जबकि पश्चिम बंगाल और दार्जिलिंग में इनकी 479 जातियां हैं । एक ओर जहां उत्तरी पूर्वी भारत में संख्या अधिक है वहीं पश्चिमी घाट में देशज आॅर्किडों की संख्या अधिक है । इनमें से 111 केरल में हैं और तमिलना्डु में 92 । देश के 10 जैव भौगोलिक क्षेत्रों में हिमालय सबसे धनी आॅर्किड वितरण स्थली है और इसके उपरांत क्रमश: उत्तर-पूर्व, पश्चिमी घाटों, दक्कन प्लेटों और अंडमान निकोबार आते हैं । पुष्पविज्ञान में आॅर्किडों के महत्व को देखें तो इस पर-परागित और जटिल पुष्प संरचनाधारी समूह की ओर ध्यान इसलिए और भी आकर्षित हो जाता है कि संकटापन्न प्राणी और वनस्पति-समूह के व्यापार की मान्यता के अनुसार वन्य आॅर्किड जातियों का व्यापार पूरी तरह प्रतिबंधित है । दूसरी ओर कुछ आॅर्किड जैसे डेन्ड्रोबियम, फालीनोप्सिस, ओन्सिडियम एवं सिम्बिडियम पुष्प उद्योग में अत्यंत लोकप्रिय हैं।