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अपनी बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी भाषा की अकल्पनीय सेवा कर गये भारतेंदु हरिश्चंद

साहित्य में सोच की नींव रखने वाले अग्रणी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र असाधारण प्रतिभा के धनी व दूरदर्शी युगचिंतक थे और उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज में सार्थक हस्तक्षेप किया और इसकी शक्ति का उपयोग करते हुए आम जनमानस में जागृति लाने की कोशिश की तथा दरबारों में कैद विधा को आम लोगों से जोड़ते हुए इसे सामाजिक बदलाव का माध्यम बना दिया। उनका निधन महज 35 साल की उम्र में हो गया था। हिंदी की विपुल मात्रा और अनेक विधाओं से निपुण हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है। हिंदी साहित्य का आधुनिक काल प्रारंभ करने का श्रेय  भी भारतेंदु हरिश्चंद्र को ही जाता है।

अंकित सिंह

हिंदी पत्रकारिता नाट्य और काव्य के क्षेत्र में भारतेंदु  हरिश्चंद्र का योगदान काफी रहा है। उन्हें  उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंगकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार और ओजस्वी गद्यकार का दर्जा प्राप्त है। भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म में 9 सितंबर 1850 को उत्तर प्रदेश के काशी में हुआ था। उनके पिता गोपाल चंद्र एक अच्छे कवि थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस दौर में हिंदी साहित्य के आयाम को नयी दिशा दी जब अंग्रेजों का शासन था और अपनी बात कह पाना कठिन था। उन्होंने एक ओर खड़ी बोली के विकास में मदद की वहीं अपनी भावना व्यक्त करने के लिए नाटकों और व्यंग्यों को बेहतरीन इस्तेमाल किया। इस क्रम में भारत दुर्दशा या अंधेर नगरी जैसी उनकी कृतियों को देखा जा सकता है। अंधेर नगरी विशेष रूप से चर्चित हुई। कथाकार गौरीनाथ के अनुसार भारतेंदु के दौर में अपनी बात कहना बेहद कठिन था। विदेशी शासन के प्रति अपने प्रतिरोध को जताने के लिए उन्होंने साहित्य का सहारा लिया और 34 साल के अपने जीवनकाल में ही उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध कर दिया। गौरीनाथ के अनुसार भारतेंदु ने साहित्य में सोच की नींव रखी और उस दौर की राजनीति में भी प्रतिरोध को दिशा दी। उनके लेखन से बाद की पीढ़ी को बल मिला। गौरीनाथ  के अनुसार खड़ी बोली के विकास में भारतेंदु की भूमिका उल्लेखनीय थी और वह सही मायनों में खड़ी बोली के सबसे बड़े निर्माता थे। उनकी रचनाओं में बनावटी संस्थागत कार्य के बदले प्रतिरोध का स्वर उभर कर सामने आता है। उनकी कृतियों में उस दौर की स्थित, समस्याएं उभर कर सामने आती हैं और वह परोक्ष रूप से उसके प्रति लोगों को आगाह करते दिखते हैं।

भारतेंदु के लेखन में परोक्ष रूप से आजादी का स्वप्न और भविष्य के भारत की रूपरेखा की झलक मिलती है। वह धार्मिक एकता व प्रांतीय एकता के भी पक्षधर थे। धार्मिक एकता की जरूरत का जिक्र करते हुए भारतेंदु ने अपने एक भाषण में कहा था कि घर में जब आग लग जाए तो देवरानी और जेठानी को आपसी डाह छोड़कर एक साथ मिलकर घर की आग बुझाने का प्रयास करना चाहिए। उनकी नजर में अंग्रेजी राज घर की आग के समान था और देवरानी जेठानी का संबंध जिस प्रकार पारिवारिक एकता के लिए अहम है, उसी प्रकार हिंदू मुस्लिम एकता की भावना राष्ट्रीय आवश्यकता है। असाधारण प्रतिभा के धनी भारतेंदु युगचिंतक, दूरदर्शी व विभिन्न विधाओं के प्रणेता साहित्यकार थे। उनके प्रयासों से साहित्य सिर्फ संवेदना का क्षेत्र नहीं होकर वैचारिकता का उत्प्रेरक साबित हुआ। उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज में सार्थक हस्तक्षेप किया और साहित्य की शक्ति का उपयोग करते हुए आम जनमानस में जागृति लाने की कोशिश की। उन्होंने दरबारों में कैद साहित्य को आम लोगों से जोड़ते हुए इसे सामाजिक बदलाव का माध्यम बना दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु के बारे में लिखा है कि उनकी भाषा में न तो लल्लूलाल का ब्रजभाषापन आया, न मुंशी सदासुख का पंडिताउपन, न सदल मिश्र का पूरबीपन। उन पर न राजा शिव प्रसाद सिंह की शैली का असर दिखा और न ही राजा लक्ष्मण सिंह के खालिसपन और आगरापन का। इतने पनों से एक साथ पीछा छुड़ाना भाषा के संबंध में बहुत ही परिष्कृत रुचि का परिचय देता है। अपने असाधारण कृतित्व के कारण भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने 35 साल की उम्र में हिंदी भाषा की अकल्पनीय सेवा की। भारतेंदु ने स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी और उर्दू जैसी भाषाएं सीख ली थी। भारतेंदु की प्रमुख कृतियों में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, सत्य हरिश्चंद्र, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, विद्या सुंदर, जातीय संगीत, कश्मीर कुसुम इत्यादि हैं। काव्य संग्रह की बात करें तो भक्त सर्वस्व, प्रेम माधुरी, प्रेम फुलवारी, नए जमाने की मुकरी के जरिए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी भाषा की सेवा की। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उपन्यास, आत्मकथा, यात्रा वृतांत और कहानी के माध्यम से भी हिंदी भाषा को कई महत्वपूर्ण कृतियां प्रदान की।

उनका निधन 6 जनवरी 1985 को उत्तर प्रदेश के काशी में ही हुआ। भले ही आज वह हम सबके बीच में नहीं हैं लेकिन उनकी कृतियां हमेशा हिंदी भाषा में उनके योगदान को हमें याद दिलाती रहेंगी। प्रारंभिक जीवन एवं परिवार आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितम्बर 1850 में काशी के वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता बाबू गोपाल चन्द्र भी एक कवि थे। लेकिन बाल्यावस्था में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनका बचपन माता-पिता के वात्सल्य से वंचित रहा। भारतेन्दु जी ने पांच वर्ष की अल्पायु में ही काव्य रचना कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। उन्होंने आपने घर पर ही स्वाध्याय से हिन्दी, अँग्रेजी, संस्कृत, फारसी, मराठी, गुजराती आदि  भाषाओं का उच्च ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा क्वीन्स कॉलेज, बनारस से  प्राप्त की। मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह हुआ। भारतेंदु जी स्वभाव से बहुत उदार  थे। उन्होंने देश सेवा, दीन दुखियों की आर्थिक सहायता, साहित्य सेवा एवं गरीबो में अपना धन लुटा दिया। जिसके परिणाम स्वरूप वे ऋणी हो गए और इस चिंता के कारण उनकी 35 वर्ष की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई।

संपादकीय एवं पत्रकार हरिश्चंद्र

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने काव्य रचना के साथ पत्रकरिता भी की, इन्होंने कई पत्रिकाओं के संपादन किए। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में कविवचनसुधा नामक पत्रिका निकाली जिसमें उस समय के बड़े-बड़े  विद्वानों की रचनाएं छपती थी। इसके बाद उन्होंने 1873 में हरिश्चन्द्र मैगजीन और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए बाला बोधिनी नामक पत्रिकाएँ निकालीं। इसके साथ ही उनके समांतर साहित्यिक  संस्थाएँ भी खड़ी कीं। इसके अंतर्गत उन्होंने तदीय समाज की स्थापना वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए की। उन्होंने देश भाषा तथा साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया। स्वतंत्रता आंदोलन के समय भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने अंग्रेजी शासन का विरोध करते हुए देश सेवा के कार्य किये और वे काफी लोकप्रिय भी हुए। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें भारतेंदु (भारत का चंद्रमा) की उपाधि प्रदान की।